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________________ mammmmmmmmmmmmmmmmmmm १२६ जैन रामायण तृतीय सर्ग। इसके दुष्कर्ममें मदद देनेवाली और अनुमोदन कर्ता थी इस लिए इसके साथ तू भी दुःख उठा रही है। मगर उस दुष्ट कर्मका फल तुम लोगोंने प्रायः भोग लिया है। अब तुम भवमें सुख देनेवाले जिन धर्मको धारण करो। इस अंजनाका मामा अकस्मात आकर इसको लेजायगा और थोड़े दिनोंमें इसके पतिके साथ भी इसकी भेट हो जायगी।" इस तरह अंजनाका पूर्व भव बता; उसको दासी सहित जिनधर्ममें स्थापित कर, मुनि गरुडकी भाँति आकाशमें उड़ गये। इतनेहीमें उन्होंने एक सिंहको वहाँ आते हुए देखा। अपनी पूँछके फटकारनेसे ऐसा जान पड़ता था कि मानो वह पृथ्वीको फाड़ना चाहता है। अपनी गर्जनाकी ध्वनिसे वह दिशाओंको पूरित कर रहा था । हाथियों के रुधिरसे वह विकाल था; उसके नेत्र दीपकके समान उज्वल थे; उसकी डाढ़ें वज्रके समान दृढ़ थीं; उसके दाँत करोतके समान तीखे-क्रूर-थे; उसकी केशर, अग्निज्वालाके समान थी; उसके नाखून लोहके खीलोंके समान थे. और उसका उरस्थल शिलाके तुल्य था। ऐसे सिंहको देखकर दोनों स्त्रियाँ नीची आँखें करके काँपने लगीं-मानोवह भूमिमें घुसजाना चाहती हैं-और भयभीत हरिणीकी भाँति निस्तब्ध हो गई । उसी समय उस गुफाके स्वामी- मणिचूल ' नामके गंधर्वने अष्टापद उस गावाका भाँति निस्ताना चाहती है।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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