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जैन रामायण तृतीय सर्ग |
पहिले महसितने अंजना के कमरेमें प्रवेश किया । उसने देखा, थोड़े जलकी मछलीकी भाँति वह अपने पलंगपर पड़ी हुई छटपटा रही है; कमलिनी जैसे हिमसे पीडित होती है, वैसे ही वह चंद्र - ज्योत्स्नासे - चांदनीसेव्याकुल हो रही है; हृदयके तापसे - आंतर- अग्निसे - उसके हारके मोती फूटने लग रहे हैं; लंबी लंबी निःश्वासों से उसकी केशराशी चपल हो रही है; और असह्य पीडासे पछड़ाती हुई भुजाओंकी पछाड़से कंकणकी मणियाँ टूटने लग रही हैं। वसंततिलका सखी उसको धीरज बँधा रही है। उसके नेत्र और उसके हृदय की गति ऐसे शून्य हो रहे थे, कि मानो वे काष्टके बने हुए हैं।
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व्यंतरकी भाँति प्रहसितको अचानक अपने गृह में आते देख, अंजना भयभीत हो गई। फिर वह धीरज धरकर, बोली:- " तुम कौन हो और परपुरुष होनेपर भी तुम 'यहाँ क्यों आये हो ? मुझे जाननेकी कोई आवश्यकता नहीं है । यह परखीका घर है तुम यहाँसे चले जाओ ।
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फिर उसने अपनी दासी वसंततिलकासे कहा:हे वसंततिलका । इस पुरुषको हाथ पकड़कर महल से निकाल दे । मुझ चंद्र समान निर्मल स्त्रीके लिए किसी परपुरुषका मुख देखना भी अयोग्य है। मेरे महलमें मेरे पति पवनंजय के सिवा किसी दूसरे पुरुषको प्रवेश करनेका