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जैन रामायण तृतीय सर्ग।
अंजनासुंदरीका ब्याह । निश्चित किये हुए दिनको पवनंजय और अंजनासुंदरीका ब्याह हो गया । बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। वह विवाहोत्सव उनके मातापिताके नेत्ररूपी कमलोंको, चंद्रके समान आल्हादकारी-सुखदायी-जान पड़ा।
फिर महेन्द्र के स्नेहसे पूजा हुआ प्रहलाद, स्वजन संबं. घियों सहित वधुवरको लेकर आनंदपूर्वक अपने नगरमें मया । प्रहलादने वहाँपर अंजनसुंदरीको सात मंजिलका एक सुंदर महल रहनेको दिया । वह ऐसा जान पड़ता था मानो पृथ्वीपर विमान है। __ ममर पवनंजयने वचनसे भी उसकी सँभाल नली-कभी उससे बात भी नहीं की। क्योंकि
. 'मानीनो हवलेपं न विस्मरंति यतस्ततः।'
(मानी पुरुष अपने अपमानको जैसे तैसे भूल नहीं जाते हैं ।) इसलिए अंजनासुंदरी, विना चाँदवाली रातकी भाँति, पवनंजय विना नेत्राश्रुके-आँसुओंसे भरी हुई आँखों के-मुखको अंधकारवाला बना अस्वस्थताकी पात्र हो-रुग्ण हो-दिन बिताने लगी।
IR बार पलंगपर दोनों पसवाड़ोंको-करवटोंकोपछाड़ती हुई उस बालाको रातें बरसोंके बराबर जान पड़ने लगीं । अनन्यमना-उदास हृदया-अंजनासुंदरी हृदयघटपर पतिका ही चित्र चित्रित करती हुई दिन बिताने लगी । साखियाँ बार बार उसे मधुरवाणीसे बोलाती थीं,