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रावणका दिग्विजय।
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देगी। जिससे तुम नगर सहित नल कूवरको अपने आधीन कर सकोगे। हे देव ! 'सुदर्शन' नामक एक चक्रको भी आप यहाँ साधन कर सकोगे-प्राप्त कर सकोगे।"
रावणने मुस्कराते हुए विभीषणकी ओर देखा । विभीषणने दासीसे कहा:-" ऐसा ही होगा।" यह सुनकर दूती चली गई।
तत्पश्चात क्रुद्ध होकर रावणने विभीषणसे कहा:" अरे! यह कुल विरुद्ध कार्य तूने कैसे स्वीकार कर लिया ? रे मूढ ! अपने कुलमें आज तक किसी पुरुषने, रण भूमिमें आकर, शत्रुको पीठ और परस्त्रीको हृदय नहीं दिये । हे विभीषण ! उस बातका करना तो दूरकी बात है। परन्तु वैसे वचन बोलकर भी तूने अपने कुलको कलंकित किया है । तेरी मति आज कैसे बिगड़ गई ? जिससे तूने वैसी बात कह डाली।"
विभीषणने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया:-" हे आर्य ! हे महाभुज ! प्रसन्न होओ; इतना कोप न करो । शुद्ध हृदयवाले पुरुषोंको केवल वचन मात्रसे ही दोष नहीं लग जाता है; कलंक नहीं लग जाता है । वह उपरंभा आवे; आपको विद्या दे; आप नल कूबरको वशमें करलो, फिर आप उसको अंगीकार न करना; उसकी पापलालसा पूरी न करना । युक्तिसे उसको समझाकर वापिस खाना कर देना।"