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(१४) पयालयग ॥सागर वर गंजीरा, सिमा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ 9 ॥ इति ॥ लोगस्स समाप्तः ॥
॥ अथ प्रनाति स्तवन ॥ . ॥ अव तुं चेतन चेतने, लाविणो जाहि ॥ या जुगमें तेरो को नही, तुं किनको नांहि ॥ अब० ॥ ॥ ॥ जननी कामिनीने पिता, वेटा वेटीने नाई॥ ज्युं पंखी टोलुं मिले, पीने कमी ते जाई ॥ अव ॥ २ ॥ अंजलि जल सम थान, फरत कयुं जग दीमें ॥ संध्यारंग सम यौवनवय, अनित्य ए विसवा वीमें ॥ अब० ॥ ३ ॥ जिनदास कहे उन कारणे, बोडो मोहको संग ॥ अनुनवकुं चित्त यादरीकर ल्यो सयगुरु संग ॥ अब० ॥ ४ ॥ इति ॥
॥ अथ प्रनाती स्तवन ॥ ॥ जब जिनराज कृपा करे, तव शिब सुख पावे ॥ अक्ष्य अनुपम संपदा, नव निधि घर आवे ॥जब०॥ ॥ १ ॥ ऐसी वस्तु न जगतमें, दिल शाता यावे ॥ सुरतरु रवि शशि प्रमुख जे, जिन तेजें डिपावे ॥ ज०॥ ॥ २ ॥ जनम जरा मरणा तणां,फुःख दूर गमावे॥ मन वनमां जिन ध्याननो, जलधर वरसावे ॥ज ॥ ॥ ३ ॥ चिंतामणि रयणे करी, कोण.काग उडावे॥ तिम मूरख जिन बोडीने, अवरां कू ध्यावे ॥ ज०॥ ॥४॥ईली नमरी संगथी, नमरी पद पावे ॥ झान विमल प्रनु ध्यानथी, जिन उपमा आवे ॥ ज॥५॥