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कमलनी पूजना, करतां अविचल धाम ॥ ५॥ हृ दय कमल उपशम बनें, बाब्या रागने रोप | हिम दहे वन खंनें, हृदय तिलक संतोष ॥ ६ ॥ शोल पोहोर दे देशना, कंठ विवर वर्तूल ॥ मधुर ध्वनि सु रनर सुणे, तिणे गजें तिलक अमूल ॥ ७ ॥ तीर्थ कर पद पुण्यथी, हुय जन सेवंत || त्रिभुवन तिलक समा प्रनु, ल तिलक जयवंत ॥ ८ ॥ सि 5 शिला गुण कजल लोकांतें जगवंत ॥ वसिया तिल कारण नवि, शिर शिखा पूजंत ॥ ए ॥ उपदेश क नव तत्त्वना. तिणे नव अंग जिणंद ॥ पूजो बहु विव जावथी, कहे गुन वीर मुलिंद ॥ १७ ॥ इति ॥ अथ दोहा ॥
|| जीवडा जिनवर पूजियें, पूजानां फल जोष ॥ राजा नमे प्रजा नमे, आण न लोपे कोय ॥ १ ॥ कुंनें बांधयुं जल रहे, जल विना कुंन न होय॥ ज्ञानें बांध्यं मन रहे, गुरु विना ज्ञान न होय ॥ २ ॥ गुरु दीवो गुरु देवता, गुरु बिना घोर अंधार ॥ जे गुरु वाणी वेगजा, ते रडवडिया संसार ॥ ३ ॥ जावें जावना जावियें, नावें दीजें दान || जावें जिनवर पूजियें, नावें केंद ल ज्ञान ॥ ४ ॥ प्रभु नामकी उपधी, खरे मन खाय ॥ रोग पीडा व्यापे नही, महा दोष मिट जाय ॥ ५ ॥ प्रभुजी पूजन हुं चल्यो, केसर चंदन घनसा र ॥ नव अंगें पूजा करी, जव सायर पार उतार ॥ ६ ॥ पांच कोडीनें फूलडे, पाम्या देश ढार ॥ कुमारपाल