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(६३१) डी करीश हूं चोपाई बंदि ॥ नर नारीनां अंग उपंग, फुरके तास फलाफल चंग ॥१॥ माथे फुरके पुह वीराज, पामी अविचल सारे काज ।। जालें फुरके साजन वृद्धि, दिन दिन थाये ऋदि समृदि॥२॥ पांपण फुरके सुख संपजे, थानक बेठा थाये वि जे ॥ नाक यांख विच फरके जेह, प्रियसंगम हो ये अविहड नेह ॥३॥ बेहू यांख्यो फुरके आम, मित्र मले अणचिंत्यो ताम ॥ नयण विचार कहुँ हवे जून, वेदागमनो लेई हो ॥४॥ जमणी अांख्यो ऊपर फुरे, तो जस लानने सुख अनुसरे ॥ हाण श्र ने क्षय जय नीचले, फुरके व्रत आंखे महीयले ॥ ५ ॥ सुख जोग संगम माबियें, नीचली फुरके फ सनावीयें ॥ उपरलीयें दय उःख थाय, इणि परें नयण कह्यां विगताय ॥ ६ ॥ नाक तणी मामी जव फुरे, बातम संतोषी सुख करे ॥ टीगसी फुरके जब नासिका, दीये नव जसनी तवि आसिका ॥ ७ ॥ल मणा फुरके लखमी साड, पामे दूध दही घी बाश कान फुरके तो सुवचन सुणे,रूडी वात दिशों दिश सु गे॥॥ गाल फुरके तो सयला नोग,अथवा नोजन सासुर जोग । होठ फुरके जब ऊपरे, तव अचिंत कलियल नर करे ॥ ए॥ मुख मिष्टान्न फुरके लहे, स्त्रीसंगम थिर गह गहे ॥ नोग लहीजें हिडकी फुरी, होते फुरके वोली खरी ॥१॥ गट्टे फुरके जब नर नार, वस्त्राजरण लहे तेणि वार ॥ गावड फुरके