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(५५५) आ, उडी जेह मिलंत ॥ माणस परवश बापडां, दूर रह्यां पूरंत ॥ ५ ॥ संपति सतु वेंचे मली, विपत्ति न वेंचे कोय ॥ संगत उनकी कीजीयें,नांग्या नेरु होय ॥ ६ ॥ सर सूके सूके कमल, पंखी दह दिसी जंत ॥ आपणा सोही आपणा, पर आपणा न हुँ त ॥ ७॥ सऊन एसा कीजियें, जैसा ज्वारिकाखेत ॥ थडे कटे टोचे लणे, तो धरा न मेने देत ॥ ७ ॥ स ऊन एसा कोजीयें, जामें लखन बत्तीस ॥ नीड पडे जाजे नहीं, सूंपे अपनो सीस ॥ ५ ॥ सो सऊन लख मित्र कर, ताली मित्र अनेक ॥ सुख दुःख जासुं कीजियें, सो लाखूमें एक ॥ १०॥ सऊन ऐसा कीजीयें, जैसी निशि उर चंद ॥ चंद बिना निशि अांधली, निशि बिनु चंदा अंध ॥ ११ ॥ केबिध चतु रकू धन दीयो, के चतुराई सबीन ॥ एक चतुर और निर्धना, दोनुं दुःख क्या कीन ॥ १२ ॥ इति ॥ ॥ अथ यात्महित स्वाध्याय ॥ वालम ॥
॥ वेहेलारे आवजो ॥ ए देशी ॥ ॥ माहारुं माहारु म कर जीव तुं,जगमां नहीं ता हरु कोय रे ॥ आप सवारथें सदु मल्या, हृदय वि चारीने जोय रे ॥ माहरुं० ॥१॥ दिन दिन आयु घटे ताहरूं, जिम जल अंजलि होय रे ॥ धर्म वेला नावे ढकडो, कवण गति ताहारी होय रे ॥ महारु०॥ ॥ २ ॥ रमणीशुं रंगें राचे रमें, कांई लीये बावल बाथ रे ॥ तन धन यौवन थिर नही, परनव नावे