________________
( ४६६ )
|| देखा दे रे सखि मुने देखा दे, चंप्रन मुख चंद ॥ सखि० ॥ उपशम रसनो कंद ॥ सखि० ॥ सेवे सुरनर इंद ॥ सखी० ॥ गत कलिमल डख ढ़ंद ॥ सखी ॥ मु० ॥ १ ॥ सुहम निगोर्दे न देखियो ॥ सखि ० ॥ बादर प्रतिहि विशेष ॥ स० ॥ पुढवी याव न लेखि यो ॥ स० ॥ तेन वाचन क्षेत्र ॥ स० ॥ २ ॥ वनस पति प्रति घण दिहा ॥ स० ॥ दीवो नही दीदार || स० ॥ बिति चरिंदी जल लिहा ॥ स० ॥ गति सन्नी पण धार ॥ स० ॥ ३ ॥ सुर तिरि निरय निवा समां ॥ स० ॥ मनुज अनारज साथ ॥ स० ॥ अप ऊता प्रतिनासमां ॥ स० ॥ चतुर न चढीयो हाथ ॥ स० ॥ ४ ॥ एम अनेक थल जालियें ॥ स० ॥ द रिसा विणु जिन देव ॥ स० ॥ आगमयी मत जा लियें ॥ स० ॥ कीजें निर्मल सेव ॥ स० ॥ ५ ॥ निर्मल साधु जगति नहीं ॥ स० ॥ योग प्रवंचक होय ॥ स० ॥ किरिया अवंचक तिम सही ॥ स० ॥ फल प्रवंचक जोय ॥ स० ॥ ६ ॥ प्रेरक अवसर जि नवरू ॥ स० ॥ मोहनीय दय जाय ॥ स० ॥ कामि त पूरण सुरतरू ॥ स० ॥ श्रानंदघनप्रनु पाय ॥ स ० ॥ ७ ॥ ॥ अथ श्री सुविधिजिनस्तवन प्रारंभः ॥
॥ राग केदारो ॥ एम धन्नो धणने परचावे ॥ ए देशी ॥ || सुविधि जिसेसर पाय नमिने, शुन करणी एम कीजें रे || प्रति घणो उलट अंग धरीने, प्रह उठी पू जीजें रे || सुवि० ॥ १ ॥ इव्य नाव शुचि नाव धरी