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(४४०) जाणवा, संवर निर्जरा मोद रे ॥ आदरवां ए त्रण तत्त्वने, प्राणी लहे शिव शर्म रे ॥ वा॥ ए॥ काल अनंत गये जिन मार्गे, सिमनीटला उनासें रे ॥ गो लाने अनंतमें नागें,सि६ थया सुविलासें रे ॥ वा० ॥ १० ॥ ए नव तत्त्व तणा गुण गाया, दिन दिन चडत सवाया रे ॥ श्रीविला मंगर गुरु सुपसाया, विवेकें नित सुख पाया रे । वा ॥ ११ ॥
॥ कलश ॥ जगजंतु तारण पुरव निवारण, या दि जिनवर में शुण्यो । संवत अढार वहोतेरा वर्षे, न विक हित हेतें नण्यो । दमण पूरव विजय दशमी,
आश्विन मास सु पद ए॥ सुरगुरुवार सुखवधा रे, कहे कवि जन दद ए॥ १ ॥ तपगब राजे वड दीवाजे, श्रीविजय दया सुरीमरू ॥ तस चरण सेवी मुक्ति विजयें, नविक जन मन सुखकरू ॥ तस शि ष्य सुंदर गुगपुरंदर, पंमित मुंगर मुणिंद ए॥ तस शिष्य सेवक जग जावें, विवेक लहे आणंद ए॥२॥ ॥ इति नवतत्त्व स्तवनं समानम् ॥
॥ अथ श्री जिनदासजी कृत घन ॥ ॥ अरे तुम जपो मंत्र नवकार, उनसे उतरोगे नवपार ।। होवे तेरी कायाको उधार, सफल कर ले अपनो अवतार ॥ध्यान तुम मनसें धरो नर नार, खा
कुःखकी यह हे संसार ॥ करो प्रनु न्याल अबे जि नदास, रखो प्रनु मुफ चरणोंके पास ।। १ ॥
॥ सरक जा कुमति नार काली, तेरी संगतसे गा
नम् ॥