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द ॥ चार प्रकारें बंध ते रे, जापे जिन वेद रे ॥ प्रा ली सांजलो तेह सुजाण ॥ १ ॥ ए यांकणी ॥ प्रकृतिबंध पहेलो कह्यो रे, सहावा कहेतां स्वभाव ॥ स्थिति ते कालने जाणजो रे, एहिज एहनो जाव रे ॥ प्राणी० ॥ सां० ॥ २ ॥ अनुनागबंध ते शुं क हियें रे, कटुक मिष्ट जेम रस | प्रदेश बंध चोथो ह वे रे. दल संचय जाणो तस रे ॥ प्रा० ॥ सां० ॥ ॥ ३ ॥ ज्ञानावरणी कर्मनुं रे चतुबंधन जेह ॥ दर्श न ते कहीयें बीजुं रे, पोलीया सरिखुं एह दे ॥ प्रा० ॥ सां० ॥ ४ ॥ वेदनी लित्त प्रसि सारि खं रे, मोहनी मदिरा समान ॥ हड सरिखं आयु जाणीयें रें, चितारा सरिखुं नाम रे ॥ प्रा० ॥ सां० ॥ ॥ ५ ॥ गोत्र ते कुंजार जेहवं रे, जंमारी सम अंतरा य ॥ आठ करम जाव जाणजो रे, जेहथी दुर्गति जाय रे ॥ प्रा० ॥ सां० ॥ ६ ॥ नाएा दंसण वेयणी अंतरायनुं रे, त्रीश कोडाकोडी मान ॥ मोहनी सितेर कोडा कोडीनुं रे, सागर एह निदान रे ॥ ॥ प्रा० ॥ सां० ॥ ७ ॥ वीश कोडाकोडी नाम गोत्रनुं रे, प्रायु यर तेंत्री ॥ काल उत्कृष्ट पूरो थयो रे, जाखे श्रीजगदीश रे ॥ प्रा० ॥ सां ॥ ८ ॥ जघन्य काल दवे कहूं रे, आठ कर्मनो जेह ॥ वेदनी कर्मनो जालीयें रे, बार मुहूर्त्त को एह रे ॥ प्रा० ॥ ॥ सां० ॥ ९ ॥ नामकर्म गोत्र कर्मनो रे, या मुहूर्त्त तिम होय ॥ पांच कर्मनो यागल कहे रे, जघन्य