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( ४ २७ )
विवेक कहे नविलोक, ते नव सायर तरे ॥ ते ० ॥ ४ ॥ ॥ दोहा ॥ हवे प्रथम जीव तत्त्वना, नेद करूं हितकार ॥ विवरीने ते वर्णयुं, एक एक सुखकार ॥ १ ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ नदी यमुनाके तीर, नमे ॥ ॥ दोय पंखीयां ॥ ए देशी ॥
॥ एक दें कह्यो जीव, हुविध ने वली ॥ त्रय प्रकारें जाण, चनविह कदे केवली ॥ पंच पटविध जीव बे, बए नांखीया ॥ रिहा जिनवर एह के, मु खथी दाखीया ॥ १ ॥ चेतना लक्षण जीव ते, एक अ नेद बे ॥ त्रस ने बीजो स्थावर, इहां नवि खेद वे ॥ स्त्री पुरुष नपुंसक, वेद त्रये सही ॥ देव ग मनुष्य तिर्यच, वली नारक कही ॥ २ ॥ पांच प्रका रें जीव, पंचेंप्रिय परखीयें ॥ ब प्रकारें जीव, बकायने निरखीयें ॥ इणेविध व नेदें जीव, धारो तुमें एक म ना ॥ हवे खागल दश प्राण, कहे त्रिभुवन जिना ॥ ३ ॥ पांच इंदी त्रण बल, श्वासोच्छ्वास श्रनखुं ॥ ए दश प्राणीने होय, विवरी कहुं पारिखुं ॥ एकेंडीने चार प्राण, बेंदीने कह्या ॥ तें सात जाणो, चौरिंडीयें या जह्या ॥ ४ ॥ सन्नी पचेंड़ी ने नव, संज्ञी दश धारजो ॥ ए विना अवर न होय, संदेह मन वारजो ॥ हवे एकेंप्रिय सूक्ष्म, बादर दोय बे ॥ पंचेंप्रिय संज्ञी संज्ञी, दोय नेद जोय बे ॥ ५ ॥ बें तेंड़ी एक, चौरिं जाणजो ॥ ए साते नेद होय के, गुन मन चाणजो ॥ पत अपऊ ए दोय, चन्द नेद जीवना ॥