________________
( ४२५ ) रत्नविजय बुध सत्यविजय तो, वृद्धिविजय नणे श्रानंदकारी ॥ नेट० ॥ ८४ ॥ इति संपूर्ण ॥
॥ अथ श्रीजिनप्रतिमा उपर स्तवन ॥ ॥ चोपानी देशीमां ॥
॥ जेहने जिनवरनो नहीं जाप, तेहनुं पासुं न मेले पाप || जेहने जिनवरशुं नहीं रंग, तेहनो कदी न कीजें संग ॥ १ ॥ जेहने नहीं वाहाला वीतराग, ते मुक्तिनो न लहे ताग || जेहने भगवंतयुं नहीं जाव, तेहनी कुण सांजलशे राव ॥ २ ॥ जेहने प्रतिमाशुं नहीं प्रेम. तेहनुं मुखडुं जोइयें केम || जेहने प्रति माशुं नहीं प्रीत, तेतो पामे नहिं समकित ॥ ३ ॥ जेहने प्रतिमायुं ने वेर, तेहनी कहो शी थाशे पेर ॥ जेहने जिनप्रतिमा नहीं पूज्य, यागम बोले तेह अ पूज्य ॥ ४ ॥ नाम थापना इव्य ने नाव, प्रजुने पूजो सही प्रस्ताव ॥ जे नर पूजे जिननां बिंब, ते लहे अविचल पद विलंब ॥ ५ ॥ पूजा बे मुक्तिनो पंथ, नित नित नांखे इम जगवंत ॥ ४ ॥ सहि एक नर कविना निरधार, प्रतिमा बे त्रिभुवनमां सार ॥ ६ ॥ सतर हाणुं आषाढी बीज, नज्ज्वल कीधुं बे बोध बीज ॥ इम कहे उदयरतन नवकाय, प्रेमें पूजो प्रभुना पाय ॥ ७ ॥ इति जिनप्रतिमा स्तवनं ॥ . ॥ अथ नवतत्त्वनुं स्तवन प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥ सरसतिनें प्रणमुं सदा, वरदाता नित्य मेव ॥ मु मुख यावी तूं वसे, करुं निरंतर सेव ॥ १ ॥