________________
( ४ २२ )
या, पांच राज्य इहां सोहे रे || नव ग्रैवेयक एक उपर उपे दीठे नवि मन मोहे रे ॥ दश० ॥ ५ ॥
"
॥ दोहा ॥ बार स्वर्ग हे सदा, तिहां राज्य नीति प्र धान ॥ नेद बीजो वैमान तो, नव ग्रैवेयक विधः ॥ ५७ ॥ ॥ ढाल सातमी ॥ माइ धन सुपन तुं ध् ॥ ॥ जीवो तोरी प्राश || देशी ॥
"
॥ सुदर्शन पहेले, सागर तिहां त्रेवीश || सुप्रति बंध चोवीश, मनोरमें पंचवीश ॥ ५७ ॥ सर्व वीश, सुविशालें सत्तावीश ॥ सुमनसें अडावीश, ह वे त्रिक चीजे जगी ॥ ५५ ॥ गणत्रीश सोमनसें. प्रियंकर यात त्रोश ॥ श्रादित्यें एकत्रीश, दोय हा य तनु दश ॥ ६० ॥ ए नव ग्रैवेयकें, उए राज प्र धान ॥ सातमें सिद्ध बेहडे, हवे अनुत्तर विमान ॥ ॥ ६१ ॥ विजय विजयंतें, जयंत पराजीत ॥ सरवा रथ सिवें, नहीं तिहां राजनी नीत ॥ ६ ॥ सागर या यु तेत्री, काया कर एक वारू ॥ एका अवतारी, सुख अनंत तस चारू ॥ ६३ ॥ तिहांथी बार योजन, सिद्ध शिला महंत ॥ जोजनने अंतें, सिद्ध हवा अनं त ॥ ६४ ॥ खायु अवगाहना, कहि सामान्य प्रका र ॥ जघन्य संदेपें, बोल्या तास विचार ॥ ६५ ॥
॥ दोहा ॥ नवस्थिति इणि परें जोगवी, तुजविण त्रिभुवन देव || कुण स्थानक काया स्थितें, रह्यो कहूं सु देव ॥ ६६ ॥