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(४१०) नदयरतन कहे प्रगट प्रनुपासजी, पामी जयनंजनो एह पूजो ॥ पा० ॥ ५ ॥ इति ॥
॥ श्रीनेमनाथ स्तवनं ॥ ॥नेम मिले तो वातां कीजीयें,वो प्यारो नेम मिले तो बातां कीजीयें रे॥ ए आंकणी॥ में दुं प्यारी ने खिजम तगारी, प्रेमका प्याला पीजी रे ।। वोप्या० ॥ में हूँ केतकी तुम होजो जमरा, फरि फरि वासना लीजी ये रे।। वोप्या० ॥ १ ॥ में हुँ धरणी तुम होजो मेछ ला, कवहीक मिलनां कीजीये रे ॥ वोप्या० ॥रा जुन नेम दोनुं मुगति सीधाये, रूपचंद पद दीजीयें रे ॥ वोप्या० ॥२॥
॥ अथ पार्श्वजिनस्तवनं ॥ ॥निर्मल होइनजले प्रनु प्यारे, सब रे संसारमें है जिन न्यारे ॥ निर्मल ॥१॥ पार्श्वप्रनुजीको दर्शन कर ले, नवजल पार उतारण हारे ॥ निर्मल ॥२॥ जाके अविचल ज्योति बिराजे, अकल अगोचर रूप नदारे ॥ निर्मल ॥ ३ ॥ वाके गुनको पार न लहि यें, कहि न शके कोइ जग आधारे ॥ निर्मल ॥४॥ वाके नजन सुख पावत प्राणी, शुद्ध दमा कल्याण नदारे ॥ निर्मल ॥ ५॥ इति पार्श्वजिनस्तवनं ॥
॥अथ प्रनातीयुं ॥ ॥आतमतत्त्व विचारो रे जोगी, आतमतत्त्व विचा रो रे ॥ ए आंकणी॥ थावर जंगम व्यापारज होवे, करुणा दृष्टि तिहां कारी रे ॥ वचन विशासको उत्र