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(४०७) अरिहंत ध्यान ॥ काम क्रोध लोन परिहरे, तेहनें मु क्ति निधान ॥ मा० ॥ ४१ ।। मनुष्य जनम पामीक री, जे करशे धर्म ॥ सुख सघलांए संपजे, छूटे सर वे कर्म ॥ मा० । ४२ ॥धमै धनज पामीयें, ध में सवि सुख थाये ॥ अरिहंत नाम आराधियें, पाप परले थाये ॥ मा० ॥ ४३ ॥ खाट पथरणे सुई रहो, खा नित्य खाणां ॥ एक अरिहंत नाम संनारतां, कियां बेसे तुफ नाणां ॥ मा० ॥४४॥ मनसा वाचा कायथी, लीजें जगवंत नाम ॥ सुख स्वर्गनां संपजे, सीफे वंडित काम ॥ मा० ॥ ४५ ॥ खातां पीतां ख रचतां, हाटा म करे खलखंच ॥ काया माया कारि मी, जोबन दहाडा पंच ॥ मा० ॥ ४६॥ केही सुचं गी वाढीयो, केही सुचंगी नार ॥ केते माटी होई रही, केते जए अंगार ! मा० ॥ ४७ ॥ हंसराजा जब उमी यो, तव कोई न करे सार॥ सगां कुटुंब सदु एम नणे, वहि काढो बार ॥ मा० ॥ ४ ॥ मित्र मंत्रादिक तिहां लगें, तिहां लगें स्नेह नरपूर ॥ हंसराजा जव चालिया, तव थया सदु दूर ॥ मा० ॥४ए ॥ जेवो जाण्यो तेवो काढियो, नवि मागीयो जाग ॥ आगल खोखर हामली, मांहे अधबलती याग ।। मा॥५॥ पतित पावन प्रचजी तुमें, सुणो हो दीननाथ ॥ सं सार सागरमांहि ब्रूडतां, देजो तुमें हाथ ॥मा॥१॥ सांनलो स्वामी शामला, मोरी अरदास ॥ हुँ मागुं प्रनु एटलुं, देजो वैकुंठवास ॥ मा० ॥ ५२ ॥ अहं