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(३९१) जावना शिव सुख माग ॥ १५ ॥ जावन डे नव ना शिनी, जे आपे नवपार ॥ नावन वडि संसारमा, जस गुणनो नहि पार ॥ १५७ ॥ अरिहंत देव सु साधु गुरु, केवलिनाषित धर्म ॥ मुं समकित श्रा राधतां, बूटीजें सवि कर्म ॥ १५ ॥ नव पद जाप ज कीजियें, चनद पुरवनो सार । इम्या मंत्र गणियें सदा, जे तारे नर नार ॥ १६० ॥ सकल तिरथ नो रा जियो, कीजें तेहनी यात्र ॥ जस दरिसरों उर्गति टले, निर्मल थाये गात्र ॥ १६१ ॥ अष्टापद अर्बुद गिरि, समेत शिखर गिरनार ॥ पंचे तीरथ वंदियें, मन धरि हर्ष अपार ॥ १६॥ झपन शांति जग नेमिजिन, पार्श्व अने वईमान॥ पांचे तीरथ प्रणमतां, नित वाधे जिवं वान ॥ १६३ ॥ उत्तम नर नारी तणां, नाम कह्यां एमांय ॥ नाम निरंतर लीजियें, जिम सहि आणंद थाय ॥ १६४ ॥ प्रातम शिदा नाव ना, गुण मणि रयण नंमार ॥ पाप टले सवि तेह ना, जेह नणे नर नार ॥१६५ ॥ प्रातमशिदा जावना, जे सुणे हर्ष अपार ॥ नवनिधि तस घर संपजे, पुत्र कलत्र परिवार ॥ १६६ ॥ ए सुगतां सु ख कपजे, अंग टले सवि रीस ॥ समता रसमां जीव डो, जीले ते निशदीस ॥ १६७ ॥ इण नव परन व जव जवें, जिन मागू हुँ हेव ॥ मन वच काया यें करी, यो तुम चरणनि सेव ॥ १६७ ॥ ए गुण जिहां नावगुं, तिहां रान वेलाउन थाय ॥ आत