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पायें जिनजी नये ॥ ७ ॥ त्रेवीशमे जिनवाणि जन ने, हेतु शिवनणी परिणमे ॥ चोवीशमे प्रभु चर ए मूले, वैर जंतुनां उपशमे ॥ अन्यलिंगी नमे जि नने, पंचविंशति यतिशयें || अन्य तीर्थी मोन था ये, वीशमे प्रभुं निश्वयें || ८ || पणवीश जोयण लगें जिनथी,ईती ने मारी नहीं ॥ स्वचक्र ने परचक्र न होए, त्रीश अतिशय ए सही || अतिवृष्टि ने अनावृष्टि 5 जिंक, त्रण ए नवि ऊपजे ॥ चोत्रिशमे वलि व्याधि पीडा, आदि दुःख न संपजे ॥ ए ॥ चोत्रीश प्रति शय एह कहिया, सूत्र समवायांगमां ॥ ते जातां rai हिये धरतां, रहे यातम रंगमां ॥ निज शुद्ध तम रूप प्रगटे, नावसुं जो ध्याइयें ॥ दर्शनादिक रत्न लहियें, परम पद सुख पाइयें ॥ १० ॥ श्रत नगवंत तणा अतिशय, जणो याणी श्रासता ॥ बहु पुष्य करियें ध्यान धरियें, सूख लहियें साश्वतां ॥ श्रीसूरिविद्या नदधि सेवक, शिष्य इणि परें संस्तवे ॥ मुनि ज्ञानसागर कहे प्रभुपद, सेवा मागुं नवो नवें ॥ ११ ॥ अथ पद्मावती आराधना प्रारंभ ||
॥ हवे राणी पदमावती, जीवराशि खमावे ॥ जाए पणुं जग ते ननुं, इस वेला यावे ॥ १ ॥ ते मुज मिठामि एक्कडं, अरिहंतनी सांख ॥ जे में जीव विरा धिया, चनराशी लाख ॥ ते मुज० ॥ २ ॥ सात ला ख ष्टथिवीतला, साते अपकाय ॥ सात लाख ते कायना, साते वली वाय || ते मुऊ० ॥ ३ ॥ दश