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ल गात्र जेहनुं, द्वितिय अतिशय ए सही ॥ गोदूध सरिखां मांस लोही, तृतिय एह वखाणियें ॥ चोथो ते उत्पल गंध सरिखो, श्वासोवास सो जागियें ॥ २ ॥ आहार ने नीहार प्रबन, एह अतिशय पांचमो ॥ श्राकाशगत धर्मचक्र बहो, गगन बत्र ए सातमो ॥ रह्यां ते अंबर श्वेत चामर, युग्म अष्ट म ए को ॥ स्फटिक सिंहासन सुनिर्मल, नवमो अतिशय ए जह्यो ॥ ३ ॥ श्राकाशगत ध्वज सहस मंमित, इंइध्वज आगल चने ॥ ए दशम अतिशय को श्रुतमां, देखी परमत खलनले ॥ इग्यारमे वलि स्वामी ऊना, रहे वली बेसे जिहां ॥ सहाय स ध्वज देव ततक्षण, अशोकतरु विरचे तिहां ॥ ४ ॥ द्वादश व्यतिशय प्रनामंगल, पूठें रविकर जी पियें ॥ रमणीय सुंदर भूमि नागसो, तेरमो ए दीपियें ॥ अ धोमुख होये सर्व कंटक, चौदमे प्रतिशयवरु ॥ नुकून थइने प्रणमे ऋतु सब, पंचदशमो सुखकरू ॥ ५ ॥ संवर्त्तपवनें भूमि पूंजे, योजन लगें ए शो लमे ॥ सुगंध वर्षा तिहां वरसे, प्रगट अतिशय सतर मे || जानुप्रमाणे बीट नीचां पंचवर्ण सोहामणां ॥ चलना फूल वरसे, अढारमे अतिशय घणां ॥ ६ ॥ मनोज्ञ शब्दादिकही नासे, जंगलीशमे प्रतिश यें वली ॥ विशमे अतिशयें सुनद थाये, एम कहे प्रभु केवली || एकवीशमे प्रभु तणीय देशना, योजन लगें सवि जन सुणे ॥ बावीसमे धर्म ई मागध, ना