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________________ ( ३५४ ) लागे वार ॥ ८० ॥ काज सरे निज दासनां रे, ए मो होटो उपगार ॥ स०॥ शांति ॥ ६ ॥ एवं जालीने जग धणी रे, दिलमांहि धरजो प्यार ॥ स० ॥ रूपविजय कवि रायनो रे, मोहन जयजयकार ॥ ०॥ शांति ० ॥ ७ ॥ ॥ अथ वीरजिन स्तवनं ॥ ॥ रे बंदन आयो ॥ ए आंकणी ॥ बाजत नेरी जंगल सुर एंडुनि, नाद सुरपति नायो रे । वंदन आयो० ॥ १ ॥ ऐरावत गज सप्तसूंढ शिर, कम लहि बायो || कमल कमल जिन जुवन नुवन, नाट क बनायो रे ॥ बं० ॥ २ ॥ सुधर्म ईशान सनत म हैं, यदिदश सवायो ॥ वीश जुवनपति त्रीश दोय, व्यंतर बनायो रे ॥ बं० ॥ ३ ॥ चं सूरंज दोय ज्योतिषि चोराह, याय वीर वधायो || बंदत सुरप ति विधि जेई, जावना जायो रे ॥ बं० ॥ ४ ॥ सम वसरण श्रीवीर जिणंद, त्रिदं कोट रचायो । देशना सरस सुधारस देई, नविक मन लोभायो रे ॥ बं० ॥ ५ ॥ इत नरपति सार्णनड् नड, तेज सवायो ॥ देखन सु र ऋद्धिमान बोडी, निज संजम पायो रे ॥०॥ ६ ॥ धनधन शासन जैनधर्म, धनवीर जिनरायो ॥ संघ सकल सुखदाय पाय, जयरामें गायो रे ॥ बं० ॥ ७ ॥ ॥ अथ पार्श्वजिन स्तवनं ॥ ॥ सद्गुरुने चरणे नमी, गायचं गोडी राय ॥ माहारा वाला ॥ एकल मल्ल यलरो धणी, देखतां सुख याय ॥ माहारा० ॥ १ ॥ वामाजीनो कुंअर लाडलो, जोवा
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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