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(३५२) प्रगट जोवो ॥ दो० ॥ ६ ॥ इणविध समता बहु समजाए, गुण अवगुण का सदु दरसाए ॥ सुगी चिदानंद निज घर आए ॥ हो ॥ ७ ॥ इति ॥
॥ अय प्रजातीरागमां स्तवन ॥ ॥ देव निरंजन नव जय नंजण, तत्त्व ज्ञानका दरिया रे ॥ मति श्रुत अवधि ने मनःपर्यव, केवल झाने नरिया रे ॥ देव ॥ १ ॥ काम क्रोध लोह म बर मारण, अष्ट करमळू हतीयां रे ॥ चारे नारीद्र र निवारी, पंचम सुंदरी बरिया रे ॥ देव ॥ २ ॥ दरिसन झान एक रस जाकू, दीरोदधि ज्युं नरिया रे ॥ रूपचंद प्रनु नामकी नावां, जो बेता सो तरि या रे ॥ देव ॥ ३ ॥ इति संपूर्ण ॥
॥अथ पार्श्वजिन स्तवनं ॥ ॥ जीरे आज दिवस जलें उगीयो, जीरे आज थयो सुविहाण ॥ पास जिणेसर नेटीया, थयो आ नंद कुशल कल्याण हो साजन ॥ सुखदायक जाणी सदा, नवि पूजो पास जिणंद ॥ १ ॥ए अांकणी॥ जीरे त्रिकरण शुदिये त्रिदु समे, जीरे निसिही त्र ण संनार ॥ तिढुं दिशि निरखण वर्जीनें, दीजें ख मासमण त्रण वार ॥ हो साजन ॥ ॥ जीरे चैत्य वंदन चोवीशनो, जीरे स्वरपद वर्ण विस्तार ॥ अर्थ चिंतन त्रिदुं कालनां, जिन नाथ निदेपा चार हो॥ साजन ॥ ३ ॥ जीरे श्रीजिन पद फरसे लहे, कलि मलिनतें पद कल्याण ॥ ते वलि अजर अमर