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(३२४) टने, शियनें सुजस सोनाग ॥ शियलें सुर सानिध करे, शियल वडो वैराग ॥५॥ शियः सर्प न प्रानडे, शिया शीतल आग ॥ शीलें अरि करी केशरी, जय जाये सवि नाग ॥ ६ ॥ जनम मरगना नयथकी, में बोडाव्या अनेक ॥ नाम कहुँ हवे तेहनां, सान लजो सुविवेक ॥ ७ ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ पास जिणंद जुहारीयें ॥ ए देशी॥ , ॥शियल कहे जग हुं वडो, मुफ वात सुगो अति मीठी रे॥ लालच लावे लोकने, में दान तणी वात दी ती रे ॥ शि॥१॥ कलह कारण जग जाणीयें, वली विरति नही पण कां रे ॥ ते नारद में सीऊव्यो, मुफ जुन ए अधिकाइ रे ॥ शि ॥ २ ॥ बांहे पहेया बेर खा, शंखराजायें दूषण दीधो रे ॥ काप्यो हाथ क लावती, ते में नवपन्नव कीधो रे ॥ शि॥३॥ रावण घर सीता रही, तो रामचंई घर याणी रे ॥ सीतार्नु कलंक उतारीयुं, में पावक कीधो पाणी रे ॥ शि० ॥ ॥४॥ चंपा बार उघाडवा, वली चारणीये काढीयु नीरो रे ॥ सतीय सुनश जस थयो, में तस कीधी जीरो रे ॥ शि॥ ५॥ राजा मारण मांमोयो, राणी अनयायें दूषण दाख्यो रे ॥ शूली सिंहासण में की यो, में शेत सुदर्शन राख्यो रे ॥ शि॥ ६ ॥ शील सन्नाह मंत्रीसरें, आवतां अरिदल थंन्यो रे ॥ तिहां पण सानिध में करी, वली धरम कारज आरंन्यो रे ॥ शि० ॥ ७ ॥ पहेरण चीर प्रगट कीयां, में अ