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रत्न कहे या समजो कहियें वातो केती रे ॥ ज० ॥ ५॥ ॥ अथ गांति रथ स्तवन प्रारंभः ॥ || शांति जिणंद सुखकारी, सकलजन ! शांति जिणंद सुखकारी ॥ स्वस्तिश्री ऋद्धि वृद्धि अयंकर, मंगलान्युदय विहारी ॥ स० ॥ ० ॥ १ ॥ पूजि त गढ तीन मनोहर प्रातिहारज सहचारी । वृद अशोक परम मुददाता, कुतुमवृष्टि वरधारी । स० ॥ ॥ शां० ॥ २ ॥ दिव्यध्वनि चनविध वाजित्रसुर यो जनमान उदारी || चिहुं दिशि चमर बत्र त्रिदु शो नित, सिंहासन पदसारी स० ॥ शां० ॥ ३ ॥ ना मंगल रवि कोटि विजंता, डुंडनिध्वनि बलिहारी ॥ ऐसी सनामें श्री जिनसेवा स्वरूपचंद मन प्यारी ॥ स० ॥ शां० ॥ ४ ॥ इति श्री शांतिनाथ स्तवनम् ॥ ॥ अथ सीमंधर स्तवन प्रारंभः ॥
॥ चित्तडुं संदेशो मोकले, महारा वाल्हा जीरे ॥ मनडा साधें रे नेह, जड़ने कहेजो महारा स्वामी जीरे ॥ सीमंधर नित्य हुं जपुं, महारा स्वामी जीरे ॥ जेम बापईयो रे मेह ॥ ज० ॥ म० ॥ १ ॥ दूर शांतर जइ रह्या ॥ म० ॥ मायां लगाडीने देव || ॥ ज० ॥ म० ॥ पांखड जो महारे होवे ॥ म० ॥ कमी खावुं ततखेव ॥ ज० ॥ म० ॥ २ ॥ प्रीत ते अधिकी हो गई ॥ म० ॥ हवे केम बांकी रे जाय ॥ ज० ॥ म० ॥ उत्तम जनशुं प्रीतडी ॥ म० ॥ क दीनी रे थाय ॥ ज० ॥ म० ॥ ३ ॥ निःस्नेही