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(११) ॥ अथ श्री कुंथुजिन स्तवनं ॥ ॥ जादवपति तोरण आव्या ॥ ए देशी ॥
॥ मुफ अरज सुणो मुफ प्यारा, साची नगतिथी किम रहो न्यारा रे ॥ सनेही मोरा ॥ कुंथुजिणंद क रो करुणा ॥ १ ॥ हुँ तो तुम दरिसणनो अर्थी, घटे किम करी शके करथी रे ॥स॥ थइ गिरा एम जे विमासो, तेतो मुझने होये ने तमासो रे ॥ स० ॥ ॥॥ ललचाविनें जे कीजें, किम दासने चित्त पतीजें रे ॥ स० ॥ पद मोहोटे कहावो मोहोटा, जिणतिण वातें न दु खोटा रे ॥ स० ॥३॥ मुफ नाव महे लमें आवो, उपशमरस प्यालो चखावो रे ॥ स॥ सेवकनुं तो मन रीजे, जो सेवक कारज सीफे रे ॥ स० ॥ ४ ॥ मनमेनु थई मन मेलो, ग्रहे आव) मग अवहेलो रे ॥ स ॥ तुमें जाणो बो ए करूं लोला, पण अर्थी सर्दहे करी शिला रे ॥ स० ॥५॥ प्रनुचरण सरोरुह सेहवं, फल प्रापति लेहा लेवं रे॥ स० ॥ कवि रूपविबुध जयकारी, कहे मोहन जिन बलिहारी ।। स० ॥ ६ ॥ इति कुंथुजिन ॥ ॥ अथ श्री अरनाथ जिन स्तवनं ॥
॥ नटीयाणीनी देशी ॥ ॥ अरनाथ अविनाशी हो, सुविलासी खासी चाकरी ॥कां चाहूं अमें निशदीस ॥ अंतरायने रागें दो अनुरागें किणपरें कीजीयें ॥ कां गुननावें सुज गीश ॥ १ ॥ ॥ सिम स्वरूपी स्वामी हो, गुण