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(१७) रेलो॥५॥ हारे तहारे मुखने मटके अटक्यु माहारु मन जो, आंखडली अणीयाली कामणगारीयुं रेलो ॥हारे मारे नयणां संपट जो खिण खिण तुऊ जो, रातां रे प्रनुरूपें न रहे वा युं रेलो ॥६॥ हारे प्रनु अलगा तो पण जाणजी करीने हजूर जो, ताहा रीरे बलिहारी हुँ जानं वारणे रे लो॥ हारे कवि रूप विबुधनो मोहन करे अरदास जो, गिरुयाथी मन आणी उलट अति घणे रे लो ॥ ७ ॥ इति ॥
॥ अथ श्री शांतिजिन स्तवनं ॥ ॥ण सरवरीयारी पा० ॥ ए देशी ॥ शोलमा श्री जिनराज, उलग सुणो अम तणी॥ ललना ॥ नगतथी एवडी केम, करो डो नोलाम पील॥ चरणे विलग्यो जेह, आवीने थइ खगे। ल० ॥ निपट तेहथी कोण, राखे रस अंतरो ॥ल ॥ १ ॥ में तुफ कारण स्वामी, नवेख्या सुर घणा ॥ लम् ॥ माहरी दिशाथी में तो, न राखी कां मणा ॥ लम् ॥ तो तुमें मुफथी केम, अपूग थरहो ॥ल॥ चूक होवे जो कोय,सुखें मुखथी कहोल॥शा तुझ्थी अवर न कोय, अधिक जगतीतलें ॥ लम् ॥ जेहथी चित्तनी वृत्ति, एकांगी जा मले ॥ल ॥ दीजें दरि सन वार, घणी न लगावीएं ॥ लम् ॥ वातडली अ ति मीठीयें, किम विरमावीएं ॥ लम् ॥३॥ तुं जो जल तो हुँ कमल, कमल तो ढुं वासना ॥ लम् ॥ वासना तो हुँ नमर, न मूकुं आसना ॥ल०॥ तुं बगे