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॥ ३ ॥ वि० ॥ प्रसन्न था जगनाथ पधाया, मन मं दिर मुऊ सुधरयो जी ॥ हुं नटनवल विविध गति जाणुं, खि एक तो ल्यो मुजरो जी ॥ ४ ॥ वि० ॥ चोरा शीलख वेश हुं खाएं, कर्म प्रतीत प्रमाणे जी ॥ जो अनुभव दान गमे तो, ना रुचे तो कहो मत्राणे जी ॥ ५ ॥ वि० ॥ जे प्रजुनक्ति विमुख नर जगमें, ते
म मूल्यो जटके जी ॥ संगत तेह न विगत नहीयें, पूजादिकथी जे चटके जी ॥ ६ ॥ वि० ॥ कीजें प्रसाद उचित ठकुराई, स्वामी अखय खजानो जी ॥ रूपवि बुधनो मोहन पनणे, सेवक विनति मानोजी ॥ ७ ॥ ॥ अथ श्री अनंतनाथ जिनस्तवनं ॥
॥ वीर सुणो मोरी वीनति ॥ ए देशी ॥ ॥ अनंत जिणंद वीनति, में तो कीधी हो त्रिकरण थी आज के ॥ मिलता निज साहेबनणी, कुण खाणे हो मूरख मन लाज के ॥ १ ॥ ० ॥ मुखपंकजमनम धुकरु, रह्यो लुब्धि हो गुणग्यानें लीए के ॥ हरि हर यावल फूल ज्यों, ते देख्यां हो किम चित्त होवे प्रीण के ॥ २ ॥ ० ॥ जव फरीयो दरीयो तस्यो, पण कोइ हो सयोन द्वीप के || हवे मन प्रवहण माहरु, तुम पद जेटें हो में राख्युं बीप के ॥ ३ ॥ ० ॥ अं तरजामी मिले थके, फले माह हो सहि करीने नाग के || हवे वाही जावा तणी, नथी प्रभुजी हो कोइ इहां लाग के ॥ ४ ॥ ० ॥ पालव यही रढ लेयशुं, नही में लो हो ज्यारें तुमें मीट के ॥ श्रातम बरें जो थई, किम