________________
(१५७) जिएं ॥ मुज उतारो नवपार ॥१॥ श्रेयांस साहेबा ॥ कालादिक दूषण दाखतां, दातारपणुं कम थाय ।। श्रे० ॥ जो विण अवलंबन तारीएं, तो जग सघर्बु जश गाय ॥ श्रे॥२॥ श्रेयांस ॥ बालकने समजा ववा, कहेशो नोलामणे वा ॥ श्रेयांस॥ पण हत लीधो मुकीश नही, विणतारे त्रिभुवन तात ॥ श्रे ॥३॥ श्रे॥ जो मन तारण- बने, तो ढील तणुं गुं काम ॥ श्रे० ॥ चातक निरमुख दूपणे, थर मेघ घटा जग श्याम ॥ श्रे० ॥ ४ ॥ श्रे० ॥ तुज दरि सनथी ताहेरो, हुँ कहेवाणो जगमांहे ॥ श्रे॥ ॥ हवे मुफ कोण लोपी शके, बलीयानी झाली बांह ॥ श्रे० ॥ ५ ॥ श्रे० ॥ विष्णुकुमर वाले सरू, प्रनु सिंहपुरीनो राय ॥ श्रे० ॥ लाख चोराशी वरसनुं, प्रनु पाल्युं पूरण आय ॥ श्रे० ॥ ६ ॥ श्रे० ॥ धनुष एंशी तनु शोनतुं, खडगी संबन जगदीश ॥ श्रे० ॥ हरख धरीने वीनवे, श्री सुमतिविजय गुरु शिष्य ॥ श्रे० ॥ ७ ॥ इति ॥ श्रेयांस स्तवनं
॥अथ श्री वासुपूज्य जिन स्तवनं ॥ ॥ नंदना गोवालीया ।। ए देशी ॥ श्री वासुपूज्य नरिंदना, नंदन जन नयणानंद ॥ श्री जिन वालहा॥ प्रनु किम यावं तुम उलगें, मारे कूडो कुटुंबनो फंद ॥ १ ॥ श्री जिन सांनलो ॥ कुमति रमणी मोहनं दनी, मुज केड न मूके तेह ॥ श्री जि० ॥ मित्र मिल्यो ते लोनी, लागो तेहगुं बहुनेह ॥ ॥ श्री जिन॥