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(१३७) सवनी तृषना हो॥शी॥पूजायें तुज तनु फरसे, फरस त शीतल थइ ननसे हो॥धाशी॥मननी चंचलता जागी, सवि बंमी थयो तुज रागी हो॥शी ॥ कवि मान कहे तुज संगें, शीतलता थश्चंगो अंगें हो॥५॥
॥ अथ श्री श्रेयांस जिन स्तवनं ॥ ॥ देशी वांहाणनी॥ राग मल्हार ॥ श्रीश्रेयांस जिणंद. घनाघन गहगह्यो रे ॥घना॥ वृद्ध अशोक नी डायें, सुनर बाइ रह्यो रे ॥ स ॥ नामंगलनी फलक, ऊबूके वीजली रे ॥ ज० ॥ उन्नत गढ तिगई इ, धनुष शोना मली रे ॥ध ॥ १ ॥ देवउंकुहिनो नाद, गुदिर गाजे घणु रे॥ गु० ॥ नाविक जननां नाटिक, मोर क्रीडा नऐ रे ॥ मो० ॥ चामर केरी हार, चलंती बगतति रे॥ च॥ देशना सरस सुधारस, वरसे जिनपति रे॥व०॥ २॥समकिती चातक वृंद, तृपति पामे तिहां रे ॥ १० ॥ सकल कषाय दवानल, शांत दुवे जिहां रे ॥ शां० ॥ जन चित्तवृत्ति सुनू मि, त्रेहाली थइ रही रे ॥ ॥ तिणे रोमांच अं कूर, वती काया लही रे ॥व० ॥३॥ श्रमण कृषी बल सऊ, दुवे तव कजमीरे ॥ दु० ॥गुणवंत जन मनदेत्र, समारे संजमी रे ॥ स ॥ करता बीजाधा न, सुधान नीपावता रे ॥ सु॥ जेणें जगना लोक, रहे सवि जीवता रे ॥र० ॥ ४ ॥ गणधर गिरितट सं ग, थासूत्र गुंथना रे ॥ थ० ॥ तेह नदी परवाहें, दुश बदु पावना रे ॥दु०॥ एहज मोहोटोबाधार, विषम