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( ११५) लती फूलें मोहीयो, किम बेसे दो बावल तरु बंग के ॥अजित ॥१॥ गंगा जलमां जे रम्या, किम बिन्न र हो रति पामे मराल के॥ सरोवर जलधर जल विना, नवि चाहे हो जग चातक बाल के ॥अ॥२॥ कोकिल कल कूजित करे, पामी मंजरि हो पंजरी सहकार के ॥ उबां तरुवर नवि गमे, गिरुघायुं हो होये गुणनो प्यार के ॥ अ० ॥३॥ कमलिनी दिन कर कर ग्रहे, वली कुमुदिनी हो धरे चंदरांप्रीत के॥गौ री गिरीश गिरिधर विना, नवि चाहे हो कमला निज चित्त के॥ ॥॥तिम प्रनुगुं मुफ मन रम्यु,बीजा शुं हो नवि आवे दाय के ॥ श्रीनय विजय विबुध त गो, वाचक जस हो नित नित गुण गाय के ॥॥॥
॥अथ श्री संनव जिन स्तवनं ॥ ॥ मन मधुकर मोही रह्यो ॥ ए देशी ॥ संभव जिन वर वीनती, अवधारो गुण ग्याता रे ॥ खामी नहीं मुफ खिजमतें, कदीय होशो फल दाता रे ॥ संजव०॥१॥ कर जोडी ननो रदं, रात दिवस तुम ध्यानो रे ॥ जो मनमां आणो नहीं, तो गुं कहिये बानो रे ॥ सं० ॥ २ ॥ खोट खजाने को नहीं, दी जें वंडित दानो रे ॥ करुणा नजर प्रनुजी तणी,वा धे सेवक वानो रे ॥ सं० ॥३॥ काल लबध नहिं मति गणो, नाव सबध तुम हाथें रे ॥ लडथडतुं प ए गय बचुं, गाजे गयवर साथें रे ॥ सं० ॥४॥ दे