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जग सहु मोहे ॥ ११ ॥ उवसम रस नर जरी वरसं ता, जोजन वाणी वखाण करंता ॥ जाणवि वर्षमा एग जिरा पाया, सुर नर किन्नर आवे राया ॥१२॥ कतिसमूहें ऊलफलकंता, गयण विमाणे रण रणकं ता ॥ पेख वि इंदनू मन चिंते, सुर आवे अम ज गन होवंते ॥ १३ ॥ तीर मक जिम ते वहता, समवसरण पुहता गह गहता । तो अनिमानें गोय म ऊंपे, इणि अवसरें को तए कंपे ॥ १४ ॥ मूढा लोक अजाणिलं बोले, सुर जाणंता श्म कांइ मोले॥ मू आगल को जाण जणीजें, मेरु अवर किम उप मा दीजें ॥ १५ ॥ वस्तु बंद ॥ वीर जिपवर वीर जिपवर नाण संपन्न ।। पावा पुरिसुर महिय, पत्तना ह संसार तारण ॥ तिहिं देवेहिं निम्मविय समवर रण बहु सुरक. कारण ॥ जिणवर जग उद्योय करे, तेजें करि दिनकार ॥ सिंहासण सामिय विळ, दुई सुजय जयकार ॥ १६ ॥ जापा ॥ तो चढिन घण माग गजें, इंदनूइ नूयदेव तो ॥ ढुंकारो करी संच रिज, कवण सुजिणवर देव तो ॥ जोजन नूमि स मोसरण, पखवी प्रथमारंन तो ॥ दह दिसि देखे वि बुधवधू, आवंती सुररंन तो ॥ १७ ॥ मणिमय तो रण दंम धजा, कोसीसें नव घाट तो ॥ वैर विवर्जि त जंतुगण, प्रातिहारज आठ तो ।। सुर नर किन्नर असुरवर, इंश इंशणी राय तो ॥ चित्त चमक्किय चिं तवे ए, सेवंतां प्रनुपाय तो॥१॥ सहसकिरण सम