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भूमिका ; मन, वचन और काया की सारी चेष्टाओं से
मुक्त शैलेशी अवस्था। अयोग-व्यवच्छेद-विशेष्य और विशेषण की एकरूपता । अरति-प्रीति का अभाव , इन्द्रिय-विषयों के प्रति उदासीनता । अरतिरति-विषयों के प्रति मन का अनुराग ।। अरिहन्त-प्रथम परमेष्ठी , वीतराग, सर्वज्ञ ; कर्म-शत्रुओं के
संहता ; आत्म-विजेता। अर्थ-१. प्रयोजन २. ध्येय, ३. पदार्थ ४. ज्ञान के विषय द्रव्य,
, गुण, पर्याय ५ पुरुषार्थ, ६. धन, ७ फल । अर्थदण्ड-प्रयोजन-वश की जाने वाली हिंसा । अर्थनय-अर्थ और व्यञ्जन की वर्तमान पर्याय का ग्राहक । अर्थापत्ति-दृष्ट या कथित से तत्सम्बन्धित अदृष्ट या अकथित
का बोध होना। अर्थावग्रह-अप्राप्त अर्थ का ग्रहण । अहत्-पूज्य । देखें-अरिहन्त । अलाभ-परीषह-लाभ न होने पर भी सन्तुष्ट रहना । अलोकाकाश-लोक के बाहर स्थित मात्र अपरिमित आकाश । अल्प बहुत्व-एक-दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिकता का बोध , संकोच-विस्तार।
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