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भावप्राण-समस्त कर्मों का क्षय : निजत्व की मौलिकता । भाषलिंग-स्त्री-पुरुष आदि की अभिलाषा स्वरूप प्रवृत्ति ;
साधक का निस्संग, निकषाय, समत्व-भाव । भावहिंसा-मन एवं विचारो की तरंगों में दूसरो को पीड़ा
पहुँचाने का भाव ; रागादि की उत्पत्ति के रूप में होने
वाली हिंसा। भाषा समिति-वाणी-विवेक ; बोल-चाल विषयक यतनाचार । भिक्षा-गोचरी ; साधु द्वारा लिया गया स्वाद-निरपेक्ष,
सात्विक आहार। भिक्षु-मुनि। भूमिसंस्तर-साधु के शयन-योग्य निर्दोष/निर्जन्तुक भूमि । भेद-विज्ञान-अध्यात्म-विद्या ; जड और चेतन/शरीर और
आत्मा के पार्थक्य की अनुभूति । भेदसंघात-विच्छिन्न होने पर पुनः संयोग प्राप्त करने की
क्रिया ; स्कन्ध निर्माण का आधार । भोक्तृत्व-कर्तृत्व के कारण शुभाशुभ कर्म-फलो का उपभोग ।
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