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( ६३ ) से धर्म की प्राप्ति हो सकती है । क्योंकि-जव धार्मिक शास्त्रों को सुनता ही नहीं तो भला फिर धार्मिक विषयों पर विचार किस प्रकार कर सकता है ? अतएव धार्मिक विषयों को यदि विचार पूर्वक श्रवण किया जाय तब आत्मा को सद्विचारों से धर्म की प्राप्ति हो सकती है। जिस प्रकार ज्ञान और क्रिया से मोक्ष प्रतिपादन किया गया है, ठीक उसी प्रकार श्रवण और मनन से भी धर्मादि पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है । यदि ऐसे कहा जाय कि-बहुत से आत्माओं ने भावनाओं द्वारा ही अपना कल्याण कर लिया है, इस लिये शास्त्र श्रवण की क्या आवश्यकता है ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि-भावना श्रवण किये हुए ही पदार्थों की होगी क्योंकि-जव तक उसने प्रथम कल्याणकारी वा पापमय मार्ग को सुना ही नहीं तव तक कल्याणकारी मार्ग में गमन करना और पापकारी मार्ग से निवृत्त होना यह भावना होही नहीं सकती। अतः सिद्ध हुआ किजिन आत्माओं ने पूर्व किसी धार्मिक विषयों को श्रवण किया हुआ है, वे उनकी अनुप्रेक्षा पूर्वक विचार करते हुए अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो जाते है।
धर्म का श्रवण प्रायः धर्मदेवों के मुख से ही हो सकता है, इस लिये इस स्थान पर प्राचार्य उपध्याय और साधु ये तीनों धर्म देव हैं । इन के विषय मे कहते हैं। श्री तीर्थकर देवों के प्रतिपादन किये हुए तत्वों के दिखलाने वाले, तथा उन के पद को सुशोभित करने वाले, गण के नायक, सम्यग् प्रकार से गण की रक्षा करने वाले, गण में किसी प्रकार की शिथिलता आ गई हो तो उसको सम्यग् प्रकार से दूर करने वाले, इतना ही नहीं किन्तु मधुर वाक्यों से चतुर्विध श्रीसंघको सुशिक्षित करने वाले, गच्छवासी साधु वर्ग वा आर्य वर्ग की सम्यग् प्रकार से रक्षा करने वाले श्री जिन-शासन के शृंगार स्तभरूप, जिस प्रकार प्रत्येक प्राणी को अपनी दोनों आखों का आधार होता है, उसी प्रकार संघ में आधार रूप, वाद लब्धि-सम्पन्न नाना प्रकार के सूक्ष्म ज्ञान के धारण करने वाले अलौकिक लक्ष्मी के धारण करने वाले, इस प्रकार के गुणों से विभूषित श्री प्राचार्य महाराज के शास्त्रों में ३६ गुण कथन किये गए हैं । जो उन गुणों से युक्त । होते हैं. वे ही प्राचार्य पद के योग्य प्रतिपादन किये गए हैं, सो वे गुण निम्न लिखितानुसार हैं जैसे कि
१देश-आर्य देश में उत्पन्न होने वाला यद्यपि धर्म पक्ष में देश कुलादि की विशेप कोई आवश्यकता नहीं है, तथापि प्रायः आर्य देश में उत्पन्न होने वाला जीव सुलभ-वोधि वा गांभीर्यादिगुणों से सहज में ही विभूपित हो सकता है, तथा परम्परागत आर्यता आत्मविकास में एक मात्र कारण बन जाती है जैसे कि-भारतवर्ष मे ३२ सहस्र देश प्रतिपादन किये गए है, परन्तु उन मे