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________________ ( ५८ ) ". तथा राग द्वेष रूपी शत्रुत्रों के जीतने से अनन्तनाथ प्रभु को अनन्तजित् भी कहते हैं तथा जब श्रीभगवान् गर्भस्थ थे तब माता ने अनन्तरत्नदाम को देखा वा जीता इस कारण भी अनन्तजित् कहते हैं । सुविविस्तु पुष्पदन्त पुष्प कलिका के समान अति मनोहर दन्त होने से सुविधिनाथ स्वामी को पुष्पदन्त भी कहते हैं । मुनिसुव्रतसुत्रतौ तुल्यौ मुनिसुव्रत स्वामी को सुव्रत भी कहते हैं। जैसे- समास में सत्यभामा भामा इस प्रकार प्रयोग सिद्ध किया जाता है । अरिष्टने,नेस्तु नैभि. अशुभ पदार्थों के नेमिवत् प्रध्वंस करने से अरिष्टनेमि तथा जब श्री भगवान् गर्भावास में थे तब माता ने स्वप्न में अरिष्टरत्नमय महानेमि ( चक्रधारा) को देखा था इसी कारण अरिष्टनेमि नाम स्थापन किया गया । *पञ्चमादिशब्दवन्नञ् पूर्वत्वेऽरिष्टनेमिः पश्चिमादिशब्दवत् नञ्पूर्वक होने से अरिष्टनेमि शब्द की व्युत्पत्ति सिद्ध होती है । वीरश्चरमतीर्थकृत् महावीरो वर्द्धसानो देवाय ज्ञातनन्दन. वीर भगवान् को चरमतीर्थकृत् अन्तरंग शत्रुओं के जीतने से महावीर, उत्पत्ति से लेकर ज्ञानादि की वृद्धि होने से वर्द्धमान तथा जव श्रीभगवान् गर्भावास मे थे तब उन के कुल मे धन धान्यादि अनेक पदार्थों की वृद्धि हुई, इस कारण चर्द्धमान नाम संस्कार किया गया । देवों वा इन्द्रों का स्वामी होने से देवार्य तथा ज्ञात कुल में उत्पन्न होने से वा ज्ञात जो सिद्धार्थ राजा है उसका नन्दन होने से ज्ञात नन्दन भी कहते हैं । श्री तीर्थंकर देवों के सर्व नाम गुणनिष्पन्न होते हैं इन नामों का भव्य प्राणी अवलम्वन करते हुए वा इन नामों के गुणों में अनुराग करते हुए इतना ही नहीं किन्तु अपने आत्मा में उन गुणों को स्थापन करते हुए तथा यथावत् उन गुणों का अनुकरण करके अपने आत्मा को पवित्र करें । अतएव देवपद श्री सिद्ध परमात्मा और अर्हन् देव दोनों लिये गए हैं। देहधारी वा परमोपकारी होने से प्रथम पद से श्री अर्हन् देवों का ही आसन लिया गया है, इस लिये चतुर्विंशति तीर्थकरों के विषय में कुछ आवश्यकीय वातों का विषय लिखा जाता है । י
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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