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हो जाता है।
प्रश्न-सिद्ध परमात्मा की भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए?
उत्तर-उनकी स्तुति करते हुए उन की आज्ञानुसार अपने आचरण की शुद्धि करना. यही उनकी भक्ति है।
प्रश्न-जव सिद्ध प्रभु अरूपी और अशरीरी हैं. तव उन की क्या आशा है. यह पता किस प्रकार लग सकता है ?
उत्तर-अर्हन् देव भी निश्चय पद में सिद्ध रूप ही हैं, तथा केवलज्ञान दोनों का सम है। अतएव अर्हन् देव की जो आज्ञाएं हैं, वे सर्व सिद्ध परमात्मा की ही आज्ञाएं मानी जाती हैं।
प्रश्न-क्या हम उनकी भक्ति के वश होते हुए उनके नाम पर अनुचित क्रियाएं भी कर सकते हैं ?
उत्तर-जो उनकी भक्ति के नाम पर अनुचित क्रियाएं करनी हैं, वह भक्ति नहीं है. अपितु वह परम अज्ञानता है । जैसेकि-त्यागी को भोगों की आमंत्रण करनी।
प्रश्न-पटतया भक्ति शब्द का अर्थ क्या है ?
उत्तर-उन के गुणों में पूर्णतया प्रेमवश होकर उनकी सेवा में दत्तचित्त हो जाना, और सदैव काल उनके गुणों का चिंतन करते हुए वही गुण अपने प्रात्सा में धारण करने की चेशा करते रहना।
प्रश्न-" अरोन्ग बौहिलाभं समाहि वर मुत्तमं दिन्तु" इस पाठ में जो आरोग्य वोधिलाभ. प्रधान और उत्तम समाधि की प्रार्थना भक्ति के वश हो कर की गई है. तो क्या यह प्रार्थना अनुचित नहीं है ?
उत्तर-यह प्रार्थना इस लिये अनुचित नहीं है कि-एक तो यह असत्य मृपा भाषा का वाक्य है, द्वितीय पुद्गल सम्बन्धी इस में कोई भी प्रार्थना नहीं है। केवल कमौ से रहित होने की ही प्रार्थना की गई है।
प्रश्न- क्या इस प्रकार की प्रार्थना करने से तीर्थकर देव या सिद्ध परमात्मा उक्त पदार्थ प्रदान कर देंगे? ।
उत्तर--सालम्बन ध्यान द्वारा जो समाधि की प्राप्ति होती है। व्यवहार पक्ष में उस आलम्बन का भी उपकार माना जाता है । अतः इस उक्ति के वश होते हुए उन का देना माना ही जाता है।
प्रश्न-प्रधान और वर समाधि क्यों कथन की गई हैं ?
उत्तर-समाधि दो प्रकार से कथन की गई है। जैसे कि-द्रव्यसमाधि और भावसमाधि।
प्रश्न-द्रव्यसमाधि किसे कहते हैं ?