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( ४२ ) परमात्मा जैन-मत में नहीं माना गया है।
उत्तर-प्रियवर ! यह वात आप ने जैन सूत्रों के प्रतिकूल सुन रखी है कारण कि-जैन-मत इस प्रकार नहीं मानता । क्योंकि-जब जैन-मत ने प्रवाह (द्रव्यार्थिकनय ) से संसार को अनादि माना है तो क्या फिर वह सिद्धपद सादि मानेगा? परंच जैन मत यह अवश्य मानता है कि वर्तमान के अवसर्पिणी काल में होने वाले भी चौबीस तीर्थकर देव सिद्ध पद प्राप्त कर
चुके है।
प्रश्न-क्या जैन मत में भी अनादि अनन्त सिद्ध पद माना गया है ?
उत्तर-हां जैनमत में अनादि अनन्त पद में रहने वाला सिद्धपद स्वीकार किया गया है। जैसे कि
पुब्धि भन्ते ! लोए पच्छा अलोए पुचि अलोए पच्छा लोए ? रोहा ! लोएय अलोएय पुब्धि पेते पच्छापेते दोवि ए ए सासया भावा अण्णाणु पुन्वी एसा रोहा । पुवि भन्ते ! जीवा पच्छा अजीवा पुचि अजीवा पच्छा जीवा ? जहेव लोएय अलोएय तहेव जीवाय अजीवा य एवं भवसिद्धीया य अभवसिद्धीया य सिद्धी प्रसिद्धी सिद्धा असिद्धा॥
भगवतीसूत्रशतक १ उद्देश ६, रोहाधिकार । ' ' अर्थ-श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी से विनय पूर्वक रोह नामक भिक्षु संसार और मोक्ष विषय निम्न प्रकार से प्रश्न पूछने लगे। जैसे कि
प्रश्न- हे भगवन् ! पहिले लोक है (जगत्) वा अलोक है अथवा पहिले अलोक है वा उसके पश्चात् लोक (जगत्) है।
उत्तर-हे शिष्य ! लोक वा अलोक इन दोनों को पूर्व वा पश्चात् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि-यह दोनों ही अकृत्रिम होने से अनादि हैं अर्थात् इन का शाश्वत भाव ज्यों का त्यों ही चला श्राता है; कारणकि-जो पदार्थ द्रव्यार्थिक (प्रवाह) नय से अनादि होता है, वह पूर्व वा पश्चात् शब्द के धारण करने वाला नहीं होता। अतः उसको पूर्व वा पश्चात् भावी भी नहीं कहा जासकता क्योंकि-अनादि है।
प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पहिले जीव हुश्रा और पीछे अजीव ( जड़); वा पहिले जड़ और फिर जीव हुआ ?
उत्तर-हे रोह ! जीव और अजीव (जड़) यह दोनों पदार्थ अनादि है इसलिये इन को पूर्व या पश्चात् अमुक पदार्थ उत्पन्न हुआ इस प्रकार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि-प्रागभाव के साथ ही प्रध्वंसाभाव पड़ा हुआ है अतः जो पदार्थ प्रथम उत्पत्तियुक्त है, वह नाशवान् भी अवश्यमेव मानना पड़ेगा ।