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________________ ( ३१ ) काम लेते ही नहीं। इसके समाधान में कहा जाता है कि क्या उनचेष्टाओं के करने से ही लाभ लिया जा सकता है ? जैसे-किसी व्यक्ति को अत्यन्त लक्ष्मी की प्राप्ति हो गई तो फिर क्या मदिरा-पान, मांस-भक्षण, वेश्या संग, द्युत कर्म इत्यादि कृत्यों के करने से ही उस मिली हुई लक्ष्मी का लाभ लिया जा सकता है। नहीं। इसी प्रकार श्रीभगवान् के जव अंतराय कर्म का क्षय होता है तव उक्त पांचों प्रकृतियों के क्षय होने से आत्मिक पांचों शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु वे शक्तियां मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने से किसी प्रकार से भी विकार को प्राप्त नहीं हो सकतीं । जैसे-लोगों का माना हुआ ईश्वर सर्व-व्यापक वेश्यादि के अंगोपांगों में रहने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता तथा अंनत शक्ति होने पर भी विषय में अंनत शक्ति का उपयोग नहीं करता । यदि इस में ऐसे कहा जाय कि-जव वह अनन्त शक्ति युक्त तथा सर्वव्यापक है तो फिर विपय क्यों नहीं करता तथा जव लोग विषयादिक कृत्यों में प्रवृत्त होते हैं, तब वह उसी स्थान में व्यापक होता है, और इस कृत्य को भली प्रकार से देखता भी है तो फिर उसे देखने से और उस में व्यापक होने से क्या लाभ हुआ? इन सव प्रश्नों का यही उत्तर वन पड़ेगा कि-ईश्वर सर्व शक्तिमान होने पर भी विकारी नहीं है ठीक उसी प्रकार अन्तराय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने परभी श्रीभगवान् मोहनीय कर्म के क्षय होजाने से सदैव काल अविकारी भाव में रहते हैं। परन्तु अन्तराय कर्म के क्षय होजाने के कारण से उनमें अनन्त शक्ति का प्रगट होजाना स्वाभाविकता से माना जा सकता है तथा यदि उन शक्तियों का व्यवहृत होना स्वीकार किया जायगा तो उनमें अनेक प्रकार के अन्य दोषों का भी सद्भाव मानना पड़ेगा । जिससे उन पर अनेक दोषों का समूह एकत्र हो जाने से उनको निर्विकार स्वीकार करने में संकुचित भाव रखना पड़ेगा । अतएव श्रीभगवान् अनन्त शक्तियों के प्रकट होजाने पर भी निर्विकार अवस्था में सदैव काल रहते हैं। श्रीभगवान् हास्य रूप दोष से भी रहित होते हैं क्योंकि चार कारणों से हास्य उत्पन्न होता है। जैसे कि-हास्य पूर्वक बात करने से १ हंसते को देखने से २ हास्य-कारी वात के सुनने से ३ और हास्य उत्पन्न करने वाली बात की स्मृति करने से ४ सो हास्य के उत्पन्न होजाने से सर्वज्ञता का अभाव अवश्य मानना पड़ेगा । क्योंकि-हास्य अपूर्व वात के कारण से उत्पन्न होता है, जब वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं तव उनके ज्ञान में अप्रूव कौनसी बात हो सकती है। अतः वीतराग प्रभु हास्य रूप दोष से भी रहित होते हैं। ७ रति-पदार्थों पर रतिभाव उत्पन्न करना । यह भी एक मोहनीय कर्म का मुख्य कारण है । सो श्रीभगवान् पदार्थों पर प्रीतिभाव रखना इस दोष से
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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