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की शैली श्रीभगवान् की प्रतिपादन की गई है ।
२६ विभ्रमविक्षेपकिलकिञ्चितादिविमुक्लत्वम् - वह वाक्य मनोदोष के दोपों से भी रहित होता है । जैसे- वक्ता के मन में भ्रांतता, और चित्त का विक्षेप रोष भयादि के भाव तथा प्रत्यनासनता इत्यादि मन के दोषों से वह वाक्य रहित होता है । क्योंकि- यदि उक्त मन के दोषों के साथ वाक्य उच्चारण किया जायगा तो वह वाक्य प्राप्त वाक्य नहीं कहा जा सकता । नाहीं उस वाक्य से यथार्थता से पदार्थों का बोध हो सकता है ।
३० अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वम्-वस्तु का स्वरूप विचित्रता से वर्णन किया हुआ उस वाक्य से सिद्ध होता है । क्योंकि - श्रीभगवान् जिस पदार्थ का वर्णन करते है, उस पदार्थ का वर्णन नय और प्रमाण द्वारा वर्णन किये जाने पर अनेक प्रकार की विचित्रता उस वाक्य में पाई जाती है ।
३१ हितविशेषत्वम् — वचनान्तर की अपेक्षा से ढौकितता ( हित शिक्षा का समुदाय ) विशेषता से होती है अर्थात् श्रीभगवान् का परम पवित्र वाक्य प्राणी मात्र के हित का प्रकाशक होता है ।
३२ साकारत्वम् विच्छिन्नवर्ण पद वाक्य होने से उस वाक्य में आकारता पाई जाती है अर्थात् साकार वाक्य सौदर्य का धारण करने वाला होता है । ३३ सत्वपरिगृहीतत्वम् - साहस भाव से युक्त अर्थात् निर्भयता का सूचक वाक्य होता है ।
३४ श्रपरिखेदितत्वम् - श्रीभगवान् अनंत चल होने से धर्म कथा करते हुए खेद नहीं पाते, क्योंकि - षोडश प्रहर पर्यन्त देशना करने पर भी श्रीभगवान् परिश्रम को प्राप्त नहीं होते अतएव धर्म कथा करते हुए उनको खेद कदापि नहीं होता ।
३५ अव्युच्छेदित्वम् - [- यावत्काल पर्यन्त विवक्षित अर्थों की सम्यग् प्रकार से सिद्धि न हो जाए, तावत्काल पर्यन्त अनवच्छिन्न वचन प्रमेय होता है अर्थात् श्रीभगवान् जिस पदार्थ का वर्णन करने लगते है, उस की सिद्धि सर्व-नय और प्रमाणों द्वारा सर्व प्रकार से योग्यता पूर्वक कर देते हैं । सो यह सब अतिशय चार मूलातिशयों में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं, जैसे कि - ज्ञानातिशय १ पूजातिशय २ वागतिशय ३ और अपायापगमातिशय ४ किन्तु ये सव अतिशय उसी समय प्राप्त होती है जब कि - ज्ञानावरणीय कर्म १ दर्शनावरणीय कर्म २ मोहनी कर्म ३ और अन्तराय कर्म ये चारों घातिक संज्ञक कर्म क्षय होजाते हैं, इन्हीं के क्षय हो जाने से अनन्तज्ञान १ अनंतदर्शन २ क्षायिकसम्यक्त्वभाव ३ और अनंत चल वीर्य प्रकट हो जाता है । तथा इन्हीं कर्मों के क्षय होजाने से श्रीभगवान् अष्टादश दोषों से रहित कहे जाते हैं । जैसे कि