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प्रशांतचित्त होकर धर्म कथा श्रवण करते हैं अर्थात् जाति-वैर होने पर भी वैरभाव को छोड़ कर धर्मकथा से लाभ उठाते हैं। जव देवताओं के विषय में इस प्रकार कथन किया गया है तो फिर मनुष्यों के विपय में तो कहना ही क्या है ? अर्थात् श्रीभगवान् के समीपधर्म-कथा के सुनने के समय "सिंह और वकरी एक घाट पर पानी पीते हैं" यही जनश्रुति चरितार्थ होती है । तथा अहिंसा की यही महिमा है जिस से जाति-वैर भी नए होजाए ।
२५ अण्ण उत्थिय पावयणियावियणमागया वंदन्ति ।
श्री भगवान् के अतिशय के माहात्म्य से जैनेतर लोग भी आ कर वंदना करते है अर्थात् जो अन्य प्रावचनी पुरुष हैं, वे अपने सिद्धान्त में परम दृढ़ता रखते हुए भी श्री भगवान् के सन्मुख आते ही नम्र हो जाते हैं; अहंकार भाव छोड़ कर श्री भगवान् की स्तुति करने लगजाते हैं।
२६ आगया समाणा अरहो पायमूले निप्पडिवयणा हवंति।
यदि अर्हन् भगवान् को वे वादी पराजित करने के लिये आएं तो वे फिर निरुत्तर होजाते हैं, क्योंकि-सूर्य के प्रकाश के सन्मुख खद्योत (जुगनु) का प्रकाश किस प्रकार शोभा पासकता है, ठीक तद्वत् केवल ज्ञान के सन्मुख जुद्र मति अशान और श्रुत अशान द्वारा कल्पन किये हुए पदार्थ किस प्रकार ठहर सकते हैं ? सो अर्हन् भगवान के सन्मुख वादी निष्प्रतिवचन (चुप) होकर ठहरते हैं।
२७ जो जो वियणं अरहंतो भगवतो विहरति तो तो वियर्ण जोयण पणवीसाएणं इत्ती न भवइ ।
जिस २ देश में श्रीअर्हन् भगवान् विचरते हैं, उस र देश में पच्चीस (२५) योजन प्रमाण धान्यादि के उपद्रव करने वाले प्राणी-गण उत्पन्न नहीं होते अर्थात् १०० क्रोश प्रमाण जिस देश में श्रीभगवान् विराजमान होते हैं उस देश में उपद्रवादि नहीं हो सकते कारणकि-उनके पुण्य के माहात्म्य से १०० क्रोश प्रमाण तक किसी प्रकार का उपद्रव होता ही नहीं।
२८ मारी न भवइ ।
१०० क्रोश प्रमाण में मरी भी नहीं पड़ती जैसे मरी के पड़जाने से बहुत प्राणी मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं; उसी प्रकार १०० क्रोश प्रमाण क्षेत्र तक श्री भगवान् के अतिशय के माहात्म्य से प्राणी महामारी के भय से विमुक्त रहते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु वे आनन्द पूर्वक समय व्यतीत करते हैं।
२६ सचक्क न भवइ। अपने राजा की ओर से किसी प्रकार के उपद्रव होने की आशंका