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विनय है। विनय करने से सदाचार की भी अतीव वृद्धि होती है क्योंकि-विनय धर्म शुद्ध आचार का प्रदर्शक है और सदाचार ही जीवन का मुख्योद्देश्य है इसी से जीवन पवित्र और उच्चकोटी का हो सकता है इतना ही नहीं किन्तु विनय-धर्म का प्रचार देखकर अनेक आत्माएं विनीत हो जाती है। अतएव इस क्रिया से तीर्थकर नाम गोत्र कर्म की उपार्जना की जासकती है।
११ श्रावश्यक-संयम की विशुद्धि करने वाली नित्य क्रियाओं द्वारा भी उक्त पद प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि-साधु धर्म में यावन्मात्र क्रियाएं की जाती हैं, उनका मुख्योद्देश संयम की विशुद्धि करने का ही है । जैसे-दोनों समय आवश्यक (प्रतिक्रमण) करना वह भी दिन में वा रात्रि के लगे हुए अतिचारों की विशुद्धि वास्ते ही किया जाता है क्योंकि-शास्त्रकारों ने-" सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" मोक्ष का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक् चारित्र ही प्रतिपादन किया है । सो उक्त तीनों में यदि कोई दोष लग गया हो तो उस दोष की विशुद्धि के वास्ते ही आवश्यक क्रियाएं की जाती है तथा यथाविधि प्रायश्चित्तादि भी धारण किये जाते हैं । जव संयम की विशुद्धि ठीक हो जायगी तव जीव का निर्वाण प्राप्त करना सहज में ही हो सकता है। कारण कि-संयम का फल है अाश्रव से रहित हो जाना । जव शुभाशुभकर्मो के आने का निरोध किया गया तब पुरातन कर्म ज्ञान वा ध्यानादि द्वारा क्षय किये जा सकते हैं, जिस का नाम है निर्जरा । जव प्राचीन कर्मो की निर्जरा की गई और नूतन कर्मों का संवर होगया तव निर्वाण पद की प्राप्ति सहज में ही हो सकती है। अतएच मुसुनु आत्माओं को योग्य है कि-चे धार्मिक आवश्यक क्रियाओं के करने की नित्यप्रति चेष्टा करत रहें।
१२ शीलव्रतनिरतिचार-शील शब्द उत्तर गुणों से सम्वन्ध रखता है और व्रत शब्द मूल गुणों से सम्बन्ध रखता है। सो मूल गुण जैसे-पांच महाव्रत हैं, और उत्तर गुण जैसे प्रत्याख्यानादि है सो उक्त दोनों नियमों में अतिचार रूप दोष न लगने देना । क्योंकि-दोपों के लग जाने से गुण मलिन हो जाते है जैसे वादलों के प्रावरण से तथा राहु के प्रयोग से चन्द्रमा और सूर्य की कांति मध्यम हो जाती है ठीक तद्वत् गुण रूप चांदनी के लिये दोष रूप वादल वा राहु ही प्रतिपादन किये गए हैं अतएव जिस प्रकार ग्रहण किए हुए शीलवतों में दोष न लगजावे उसी प्रकार वर्त्तना चाहिए क्योंकि जब गृहीत-शीलवतों को शुद्धतापूर्वक पालन किया जायगा तव श्रात्मा में एक अलौकिक प्रकाश होने लगजाता है जैसे-मन के संकल्पों के निरोध करने से मन की एक अलौकिक शक्ति बढ़ जाती है । ठीक उसी प्रकार शीलवतों के शुद्ध पालने से आत्मविकाश होने लग जाता है । जिस कारण से जीव तीर्थकर नाम गोत्र कर्म के उपार्जन