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( २६२ ) ज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं नियच्छड् दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज्जं नियच्छइ दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छइ मिच्छत्तेणं उदिएणेणं गोयमा एवंखलु जीवे अठकम्म पगडीअो बंधइ ॥
पएणवन्नासू० पद २३ उद्देश ॥१॥ ' 'भावार्थ-भगवान् श्री गौतम जी श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछते हैं कि-हे भगवन् !आठ कमों की प्रकृतियों कोजीव किस प्रकार वांधते है ? इसके उत्तर में श्रीभगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावरणीय कर्म को चाहता (बांधता) है। दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शन मोहनीय कर्म की इच्छा करता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को चाहता है फिर मिथ्यात्व के उदय से हे गौतम ! जीव आठ कर्मों की प्रकृतियों को वांधता (बांधते) है।
इस सूत्रपाठ से सिद्ध हुआ कि-जब आत्मा आठों कर्मों को प्रकतियों को बांधने लगता है तव उसके पहले ज्ञानावरणीय अज्ञानता का) कर्म का उदय होता है फिर वह यथाक्रम से आठों कर्मों की प्रकृतियों को बांध लेता है। अतएव जिस प्रकार अज्ञानता पूर्वक कर्म वांधता है ठीक उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान द्वारा बहुतसे कर्म क्षय कर देता है । जब सर्वथा कर्मों के लेप से जीव विमुक्त होजाता है तव इसी जीव के नाम सिद्ध. बुद्ध, अजर, अमर, पारगत मुक्त इत्यादि होजाते हैं।
प्रश्न-शानावरणीय कर्म किन २ कारणों से बांधते हैं ? .
उत्तर-अज्ञान पूर्वक जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं । जव श्रात्मा को सम्यग्ज्ञान होजाता है तव वह जानावरणीय कर्म को क्षय कर देता है अर्थात् जव सर्वथा उक्त कर्म का आत्म-प्रदेशों से प्रभाव होजाता है तब वह प्रात्मा सर्वज्ञ वन जाता है। यदि उक्त कर्म सर्वथा क्षय न किया जा सके अर्थात् उक्त कर्म क्षयोपशम ही किया जाए तब उस क्षयोपशम करने वाले आत्मा को मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव ये चार ज्ञान उत्पन्न होजाते है। अतएव उक्त चारों ज्ञानों का नाम छद्मस्थ ज्ञान कहा गयाहै । ज्ञानाबरणीय कर्म छः कारणों से बांधा जाता है। ___णाणावरणिज्जकम्मा सरीरप्पयोगबंधेणं भंते । कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए णाणंतराएणं णाणप्पदोसेणं णाणचासादणाए। णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावर