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( २६० ) आवरण श्राता हो उनकी 'घातिक' संज्ञा है और जो कर्म आत्मा के निज गुणों पर आपत्ति न उत्पन्न करसकें उन की 'अघातिक' संज्ञा है।
प्रश्न-चार घातिक कर्म कौन २ से हैं। उत्तर-ज्ञानावरणीय १, दर्शनावरणीय २, मोहनीय ३ और अंतराय ४। प्रश्न--अघातिक चारकर्म कौन २ से हैं ? उत्तर--वेदनीय १, आयुष्कर्म २, नामकर्म ३. और गोत्रकर्म ।। प्रश्न-ज्ञानावरणीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा सर्वज्ञत्व गुण युक्त है परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म द्वारा इस का सर्वज्ञत्व गुण आच्छादन होरहा है। सारांश इतना ही है कि--जो आत्मा के जानने की शक्ति का निरोध करने वाला कर्म है, उसी को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
प्रश्न-दर्शनावरणीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस प्रकार आत्मा का सर्वज्ञत्व गुण माना गया है ठीक उसी प्रकार आत्मा का सर्वदर्शित्व गुण भी है । परन्तु उक्त कर्म के परमाणु आत्मा के उक्त गुण का आच्छादन करलेते हैं, जिसके द्वारा आत्मा का सर्वदर्शित्व गुण छिपा हुआ है।
प्रश्न-वेदनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस के कारण आत्मा निजानन्द को भूल कर केवल पुण्य कर्म के फल के भोगने में ही निमग्न रहता है, उसका नाम शुभ वेदनीय कर्म है और जब पाप कर्म के फल को भोगना पड़ता है, तब आत्मा निजानन्द को भूल कर दुःखरूप जीवन व्यतीत करने लग जाता है उस का नाम अशुभ चेदनीय कर्म है अर्थात् इस कर्म के द्वारा पुण्य और पाप के फलों का अनुभव किया जाता है।
प्रश्न-मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ? ।
उत्तर--जिस कर्म के द्वारा आत्मा अपने सम्यग्भाव को भूल कर केवल मिथ्या भाव में ही निमग्न रहे और क्रोध, मान, माया और लोभ आदि प्रकृतियों में ही चित्तवृत्ति लगी रहे उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। क्योंकि-जिस प्रकार मदिरा पीने वाला मदिरा में उन्मत्त होकर तत्त्व रूप वार्ता मुख से उञ्चारण नहीं कर सकता है ठीक उसी प्रकार मोहनीय कर्म से युक्त जीव भी प्रायः धर्मचर्चा से पृथक् ही रहता है अर्थात् मोहनीय कर्म के वशीभूत होकर वह सम्यग्दर्शनादि से पराङ्मुख होकर प्रायः मिथ्यादर्शन में ही प्रवृत्त रहता है। मिथ्यादर्शन के दो भेद हैं व्यक्त (प्रकट) और अव्यक्त (अप्रकट) जिस प्रकार एकेन्द्रियादि आत्माओं का मिथ्यादर्शन अव्यक्त रुप माना गया है