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( २५७ )
कायक्लेश तप - केश लुंचन वा योग आसनादि लगाने ॥ ५ ॥
प्रति संलीनता तप-इंद्रियां वा कषायादि को वशीभूत करना ॥ ६ ॥
अभ्यन्तर तप
प्रायश्चित्ततपकर्म —जब कोई पाप कर्म लग गया हो तब अपने गुरु के पास जाकर शुद्ध भावों से उस पाप की विशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त
धारण करना ॥ १ ॥
विनय तप-गुरु आदि की यथायोग्य विनय भक्ति करना ॥ २ ॥ वैयावृत्य-गुरु आदि की यथायोग्य सेवा भक्ति करना ॥ ३ ॥ स्वाध्यायतप - शास्त्रों का विधिपूर्वक पठन पाठन करना ॥ ४ ॥ ध्यानतप-- श्रार्त्तध्यान और रौद्र ध्यान को छोड़ कर केवल धर्मध्यान वा शुक्ल ध्यान के आसेवन का अभ्यास करना ॥ ५ ॥
कायोत्सर्गतप- काय का परित्याग कर समाधिस्थ हो जाना ॥ ६ ॥
इन तप कर्मों का सविस्तर स्वरूप उववाई आदि शास्त्रों से जानना चाहिए । सो इन तपों द्वारा कर्मों की निर्जरा की जा सकती है । अतएव इसी का नाम निर्जरातत्त्व है ।
= बंधतत्त्व - जिस समय श्रात्मा के प्रदेशों के साथ कर्मों की प्रकृतियो का सम्बन्ध होता है उसी को बंधतत्व कहते हैं । सोउस बंधतत्त्व के मुख्य चार भेद हैं जैसे कि
प्रकृतिबंध -- आठ कर्मो की १४८ प्रकृतियां हैं उनका आत्मप्रदेशों के साथ बंध हो जाना ॥ १ ॥
स्थितिबंध -- फिर उक्त प्रकृतियों की स्थिति का होना वही स्थितिबंध होता है ॥२॥
अनुभागबंध- आठों कर्मों की जो प्रकृतियां हैं उनके रसों का अनुभव करना ॥ ३ ॥
प्रदेशबंध --आठ कर्मों के अनंत प्रदेश हैं तथा जीव के श्रसंख्यात प्रदेशों पर कर्मों के अनंत प्रदेश ठहरे हुए हैं; क्षीरनीरवत् तथा अग्निलोहपिण्डवत् ॥ ४ ॥
६ मोक्षतत्त्व - जब श्रात्मा के सर्व कर्म क्षय होजाते हैं तब ही निर्वाणपद की प्राप्ति होती है । परन्तु स्मृति रहे कि - सम्यग् दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र द्वारा ही सर्व कर्म क्षय किये जा सकते हैं । कर्मक्षय होने के अनन्तर यह श्रात्मा शुद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, पारङ्गत, परम्परागत, निरंजन, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तथा अनंत शक्ति युक्त होकर निज स्वरूप में निमग्न होता हुआ शाश्वत सुख में सदैव विराजमान होजाता है । अतएव प्रत्येक प्राणी को संसार के