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पादन किये गये हैं तथापि इस के मुख्य दो ही कारण माने जा सकते हैं एक योगसंक्रमण और दूसरा कषाय । क्योंकि जब मनोयोग, वचनयोग और काययोग का संक्रमण होगा तथा क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय होगा तव वश्यमेव कर्म प्रकृतियों का श्रात्मप्रदेशों के साथ परस्पर लोलीभाव हो जायगा । श्रपितु जब वे प्रकृतियां उदद्य भाव में जाएँगी तब वे अवश्यमेव फल प्रदान करेंगी । इसी आश्रवतत्त्व में पुण्य और पाप ये दोनों तत्त्व समवतार हो जाते हैं । श्रतएव पुण्य प्रकृतियों को शुभ श्राश्रवतत्त्व कहते हैं और पाप प्रकृतियों को अशुभ आश्रवतत्त्व । सो दोनों प्रकृतियां अपने २ समय पर जव उदय भाव में आती हैं तव आत्मा को उन का अवश्यमेव अनुभव करना पड़ता है । सो इसी का नाम आश्रवतत्त्व है ।
६ संवरतत्त्व - जिन २ मार्गों से आश्रव श्राता हो उन का निरोध करना अर्थात् कर्मों का जिस से श्रात्मा के साथ सम्बन्ध न हो सके, उन क्रियाओं को संवरतत्त्व कहते हैं । पूर्व लिखा जा चुका है कि - पुण्य और पाप दोनों
श्रव हैं, सो इन दोनों के परमाणुत्रों का निषेध करना जिस से आत्मा के साथ लोलीभाव न हो सके, वही संवरतत्त्व कहा जाता है ।
यद्यपि नवतत्त्वप्रकरणादि ग्रन्थों में इस तत्त्व के अनेक भेद प्रतिपादन किये गए है । तथापि मुख्य ५ ही वर्णन किये गए हैं जैसे कि
१ सम्यक्त्वसंवर—अनादि काल से जीव मिथ्या दर्शन से युक्त है इसी कारण संसार चक्र में परिभ्रमण कर रहा है । जिस समय इस जीव को सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति होती है उसी समय संसारचक्र का चक्रदेशोनअर्द्धपुद्गलपरावर्त्तन शेष रह जाता है । सम्यग्दर्शन द्वारा पादार्थों के स्वरूप को ठीक जानकर आत्मा अपने निज-स्वरूप की ओर झुकने लग जाता है । मिथ्या दर्शन के दूर हो जाने से सम्यग् ज्ञान प्राप्त हो कर अज्ञान नष्ट हो जाता है । जव सम्यक्त्व रत्न जीव को उपलब्ध होता है तव उस की दशा संसार से निवृत्तिभाव और विषयों से अन्तःकरण में उदासीनता श्रजाती है । पदार्थों के सत्यस्वरूप को जान कर तब वह आत्मा मोक्ष पद की प्राप्ति के लिये उत्सुकता धारण करने लग जाता है । अतएव जिस प्रकार श्रीजिनेन्द्र भगवान ने पदार्थों का स्वरूप प्रतिपादन किया है उस भावको अन्तःकरण से सत्य जानना यही सम्यक्त्व का वास्तविक स्वरूप है तथा पदार्थो के ठीक २ भावों को स्वमति वा गुरु आदि के उपदेश से जान लेना ही सम्यग् दर्शन कहा जाता है । सो यावत्काल पर्यन्त आत्मा को सम्यग् दर्शन प्राप्त नही होता, तावत्काल पर्यन्त मोक्षपद की प्राप्ति से वंचित ही रहता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के पश्चात् उसी समय जीव को सम्यक्त्व संवर की प्राप्ति हो जाती है