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खंदयं कच्चाय० एवं वयासी-से नूगं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं खियंठेणं वेसालिय सावएवं इणमक्खेवं पुच्छिए मागहा । किं सांत लोए अणते लोए एवं तं जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए, से नूणं खं दया । अयम समठ्ठे ? हंता अत्थि जे वियते खंदया । अयमेयारूवे अब्भत्थिए चित्तिए पत्थि मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - किं स ते लोए ते लोए ? तस्स वियणं अयम- एवंखलु मए खंद्या ! चउव्विहे लोए पन्नत्ते तंजहा- दव्वत्र खेत्तत्र कालओ भावओ ! दुव्वत्रोणं एगे लोए स अंते ? खत्तत्रोणं लोए अंसंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीओ आयाम विक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयण कोडा कोडीओ परिक्खेवेणं पत्रत्थिपुणसे अंते २ काल
गं लोग कयाविण आसी न कयावि न भवति न कयावि न भविस्सति भवि य भवति य भविस्सह य धुवे णितिय सासए अक्खए अव्वए अवठ्ठिए णिच्चे णत्थिपुणसे अते || ३ || भावो गं लोए अरांता वरण पज्जवा गंध० रस० फास पज्जवा अरांता संठारणपज्जवा अता गुरुयलहुय पज्जवा अणंता अगुरुयलहुय पज्जवा नत्थिपुण से अंते ४ सेतं खंदगा ! दव्वओ लोए स ते खेत्तत्र लोए स ते कालओ लोए अते भावो लोए अंते ।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शत्तक २ उद्देश ॥१॥ स्थंककचरित ।
भावार्थ- जिस समय स्कन्धक परिव्राजक श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप प्रश्नों का समाधान करने के वास्ते आए, उस समय श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी नित्यं भोजन करने वाले थे अर्थात् अनशनादि व्रतों से युक्त नहीं थे । अतः उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी नित्य श्रहार करने वालों का शरीर प्रधान जैसे शृंगारित होता है अतः शृंगारित कल्याण रूप, शिवरूप, धन्यकारी मंगलरूप शरीर की लक्ष्मी से युक्त विना अलंकारों से विभूषित लक्षण और व्यंजनों से उपेत लक्ष्मी द्वारा अतीव सौंदर्यता प्राप्त कर रहा था अर्थात् सौदर्यता को प्राप्त हो रहा था । तदनन्तर वह कात्यायन गोत्रीय स्कन्धक श्रमण भगवान् नित्य आहार करने वालों के प्रधान यावत् अतीव उपशोभायमान शरीर को देख कर हर्पचित्त वा संतुष्ट
१ 'विग्रह भोइत्ति' व्यानृते २ सूर्ये भुङ्क्ते इत्येवं शीला व्यावृतभोजी प्रतिदिन भोजीत्यर्थ. । भयदेवीयावृति ||