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________________ ( २३४ ) जिस पर्याय में पदार्थ विद्यमान होता है उसी के मांगने पर अन्य पर्याय के पदार्थ के धरने वाले पदार्थ को उस के समीप नहीं उपस्थित किया जाता । जिस प्रकार किसी व्यक्ति ने शौच करने के लिये अपने दास से मिट्टी मंगवाई तब उस का दास मिट्टी की जो अन्य पर्याय घट रूप में परिणत हो रही है उस को शौच के लिये उसके पास उपस्थित नहीं करता, किन्तु जो शुद्ध मृत्तिका द्रव्य है उसी को उसके पास लाता है । इस से सिद्ध हुअाकि-- मृत्तिका द्रव्य एक होने पर भी पर्याय के कारण से भिन्न २ रूप में परिणत होरही है । सो पुद्गल द्रव्य की भी यही दशा है । पर्याय की अपेक्षा से ही यह कहा जाता है कि-यह एक है यह इस से पृथक् है । इसी प्रकार संख्या में जो आने वाले पदार्थ हैं वे भी पर्याय के ही कारण से संख्याबद्ध होगए हैं जैसेकि-एक, दो वा बहुत इत्यादि । वस्तुओं के जोनाना प्रकार के संस्थान देखे जाते हैं, जैसेकि-चतुरंश, चतुष्कोण, त्रिकोण, वर्तुल इत्यादि वे सब प्राकृतियां पर्याय को लेकर उत्पन्न हुई हैं । क्योंकि-एक परमाणु का कोई भी संस्थान नहीं माना जाता है । जब वे परमाणु द्वयणुकादि रूप में आते हैं तब वे नाना प्रकार की आकृतियों के धरने वाले होजाते हैं। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि-यावन्मात्र संस्थान (आकार) दृष्टिगोचर वा दृष्टिगोचर हैं वे सब पुद्गल द्रव्य की पर्याय के कारण से ही उत्पन्न हुए हैं । साथ ही यावन्मात्र संयोग हैं वे भी पुद्गल द्रव्य की पर्याय सिद्ध करते हैं। क्योंकि-परमाणुओं के समूह का जो एकत्र होना है उसी का नाम संयोग है जिस प्रकार संयोग का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार विभाग विषय में भी जानना चाहिए। क्योंकि-जब परमाणुओं का संयोग माना जाता है तब उनका विभाग भी अवश्यमेव मानना पड़ेगा। अतएव संयोग और विभाग जो बुद्धिकृत भेद हैं वे सब पुद्गल द्रव्य के ही पर्याय है। जिस प्रकार द्रव्य के पर्याय कथन किये गए हैं उसी प्रकार रूपादि जो पुद्गल द्रव्य के लक्षण हैं उनके विषय में भी पर्यायों का परिवर्तन होना जानना चाहिए। क्योंकि-उन की भी नूतन वा पुरातन व्यवस्था देखी जाती है । अतएव द्रव्य का गुण और पर्यायों से युक्त मानना ही युक्तियुक्त सिद्ध होता है। जैन-शास्त्रों के अनुसार देखा जाय तो तब भली भान्ति उक्त कथन से यह सिद्ध होजाता है कि यह लोक षट् द्रव्यात्मक है, जिसमें विशेषतया पुद्गल और कर्मयुक्त जीवों का ही सर्व प्रकार से विस्तार देखा जाता है । पुद्गल द्रव्य का ही संग करने से यह आत्मा अपने निज गुण को भूल कर नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव कर रहा है। यद्यपि धर्मादि द्रव्यों के शास्त्रों में पांच २ भेद भी लिखे हैं तथापि वेसर्व
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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