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जाय तव एक पक्ष नित्य श्रवश्यमेव सिद्ध हो जायगा । किन्तु इस प्रकार देखा नही जाता । अतएव द्रव्य को गुण पर्याय युक्त मानना ही युक्तियुक्त है । जैसे द्रव्य पुद्गल है उस के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुण हैं। नाना प्रकार की श्राकृतियां तथा नव पुरातनादि व्यवस्थाएँ उस की पर्याय होती हैं । इस लिये द्रव्य उक्त गुण युक्त मानना युक्ति-संगत है । यद्यपि द्रव्य का लक्षण सत् प्रतिपादन किया गया है, तथापि "उत्पादव्ययधाव्ययुक्तं सत्” उत्पन्न व्यय और ध्रौव्य लक्षण वाला ही द्रव्य सत् माना गया है। जिस प्रकार एक सुवर्ण द्रव्य नाना प्रकार के आभूषणों की आकृतियां धारण करता है और फिर वे आकृतियां उत्पाद व्यय युक्त होने पर भी सुवर्ण द्रव्य को धौव्यता से धारण करती हैं । सो इसी का नाम द्रव्य है ।
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यदि ऐसे कहा जाय कि एक द्रव्य उत्पाद और व्यय यह दोनों विरोधी गुण किस प्रकार धारण कर सकता है ? तो इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि-पर्याय क्षण विनश्वर माना गया है। पूर्व क्षण से उत्तर क्षण विलक्षणता सिद्ध करता है । जिस प्रकार कंकण से मुद्रिका की आकृति में सुवर्ण चला गया है, परन्तु सुवर्ण दोनों रूपों में विद्यमान रहता है । हाँ पूर्व पर्याय उत्तर पर्याय की आकृति को देख नहीं सकता है । क्योंकि - जिस प्रकार अंधकार और प्रकाश एक समय एकत्व में नहीं रह सकते हैं उसी प्रकार पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय भी एक समय इकट्ठे नही हो सकते हैं ।
जैसे युवावस्था वृद्धावस्था की आकृति को नहीं देख सकती, उसी प्रकार पूर्व पर्याय उत्तर पर्याय का दर्शन नहीं कर सकती; परन्तु शरीर दोनों अवस्थाओं को धारण करता है, उसी प्रकार द्रव्य उत्पाद और व्यय दोनों पर्यायों के धारण करने वाला होता है ।
जिस प्रकार हम रात्रि और दिवस दोनों का भली भांति अवलोकन करते हुए धारण करते हैं, परन्तु रात्रि और दिवस वे दोनों युगपत् ( इकट्ठे हुए ) नहीं देखे जाते, ठीक उसी प्रकार द्रव्य दोनों पर्यायों को धारण करता हुआ अपनी सत्ता सिद्ध करता है ।
अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि -द्रव्यों की संख्या कितनी मानी गई हैं ? इसके उत्तर में सूत्रकार वर्णन करते हैं । जैसेकि—
धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतबो ।
एस लोगोनि पण्णत्तो जिहिं वरदं सिहिं ॥
उत्तराध्ययन सूत्र श्र. २८ गा० ॥ ७॥
वृत्ति -- इति-धर्मास्तिकायः १ यवम् इति - अवर्मास्तिकायः २ आकाशमिति - काशास्तिकायः ३ काल ममयादिपः-४ पुग्गलत्ति - पुद्गलास्तिकाय. ५ जन्तव इति जीवा
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