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( २०३ ) रत्न उपलब्ध होजाता है जिस के कारण से वह सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करसकता है । सो धन, धान्य, क्षेत्र,वाहन, गृह, दास, दासी आदि का यावन्मात्र परिमाण किया गया हो उस को फिर उसी प्रकार पालन करना चाहिए । क्योंकि इस अणुव्रत के भी पांच ही अतिचार रूप दोष वर्णन किये गए हैं जैसेकि
तयाणन्तरं चणं इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियबा न समायरियव्वा तंजहा खत्तवत्थुपमाणाईकमे हिरएण सुवरण पमामाइक्कमे दुपयचउप्पय पमाणाइक्कमे धणधानपमाणाइक्कमे कुवियपमाणाइक्कमे ॥
भावार्थ-चतुर्थ अणुव्रत के पश्चात् श्रमणोपासक को इच्छा परिमाण अनुव्रत के पांच अतिचार जानने चाहिएं किन्तु उन पर आचरण न करना चाहिए जैसेकि
१ क्षेत्रवास्तुकप्रमाणातिक्रम-क्षेत्र (भूमि) वा गृहादि का यावन्मात्र परिमाण किया गया हो जैसेकि इयान्मात्र हलों की भूमि का मैं परिमाण करता हूं तथा आरामादि का परिमाण करता हूं। इसी प्रकार हट्ट हवेली श्रादि का परिमाण करता हूं सो यावन्मात्र परिमाण किया हुआ हो उसे अतिक्रम न करना चाहिए । यदि वह परिमाण उल्लंघन किया जायगा तव उक्त अणुव्रत में अतिचार रूप दोप लग जायगा अतएव परिमाण करते समय सर्व प्रकार से विचार लेना चाहिए जिस से फिर व्रत में दोष न लग जावे।
२हिरण्य सुवर्णप्रमाणातिक्रम-घटित और अघटित चाँदी और सुवर्ण का यावन्मात्र परिमाण किया गयाहो उस परिमाण को अतिक्रम न करना चाहिए । जब उक्त पदार्थ परिमाण से अधिक बढ़ जाएँ तव लोभ के वशीभूत होकर इस प्रकार का विचार उत्पन्न नहीं करना चाहिए कि-यह पदार्थ पुत्र की निश्राय है, यह पदार्थ धर्मपत्नी की निश्राय किया गया है तथा यह पदार्थ जव पुत्र उत्पन्न होगा उसके जन्मोत्सव में लगा दिया जायगा। इन संकल्पों से उक्त व्रत दूपित होजाता है। अतएव जिस प्रकार उक्त पदार्थो का परिमाण किया हुआ है उस परिमाण को उसी प्रकार पालन करना चाहिए यदि उक्त प्रकार पालन नहीं किया जायेगा तो उक्त व्रत मलिन होजायगा।
३ धनधान्य प्रमाणातिक्रम-यावन्मात्र धन और धान्यादि (अनाज) का परिमाण किया गया हो उसको अतिक्रम कर देना उक्त व्रत में दोष का कारण है । अतएव उक्त परिमाण विधिपूर्वक पालन करना चाहिए । धन आदि की वृद्धि हो जाने पर कुतकों द्वाराव्रत को मलिन न करना चाहिए । जैसेकि-परिमाण में ने किया है इसलिये पदार्थ को मैं अपनी स्वाधीनता में