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( १६८ ) अनुवत के स्वरूप को जानना चाहिए । और वे पांच अतिचार जानकर आसेवन न करने चाहिएं जैसेकि
१ सहसाभ्याख्यान-किसी को विना विचारे कलंकित कर देना अर्थात् असत्य दोषारोपण करना ।
२ रहस्याभ्याख्यान-किसी के मर्म को प्रकट करना वा गुप्त बातों का प्रकाश करना।
३ स्वदारामंत्रभेद -अपनी स्त्री की गुप्त बातों को प्रकाश करना, उपलक्षण से गृह सम्बन्धी बातों का प्रकाश करना।
४ मृषाउपदेश-अन्य आत्माओं को असत्य बोलने के लिये प्रस्तुत करना।
५ कूटलेखकरणअतिचार-असत्य लेख लिखने, असत्योपदेश लिखने तथा व्यापारादि में असत्य लेखों द्वारा काम लेना। यह पांचवाँ अतिचार है। उक्त पांचों अतिचारों को छोड़कर शुद्धतापूर्वक द्वितीय अनुव्रत का पालन करना चाहिए।
जब दूसरा अनुव्रत ठीक प्रकार पालन कर लिया जाय फिर तृतीय अणुव्रत को इस प्रकार पालन करना चाहिए। जैसेकिथूलाओ अदिन्नादाणाश्रो वेरमणं ।
ठाणांगसूत्रस्थान ५ उद्देश १॥ भावार्थ-श्रावक को तृतीय अणुव्रत में स्थूल चोरी का परित्याग करना चाहिए । जैसे कि-विश्वास-घात द्वारा लोगों को लूटना, मार्ग में लूटना संधि-छेदन करना, गाँठ कतरना, अन्य के तालों के खोलने के लिए कुंचिका वनाकर पास रखना तथा विना आज्ञा किसी की वस्तु को उठाना । इसका नाम चोरी है, परन्तु इस स्थान पर स्थूल शब्द चोरी का विशेषण इसलिये ग्रहण किया गया है कि-जो सून्म चोरी है उसका गृहस्थी से त्याग नहीं होसकता । क्योंकि-घर सम्बन्धी वा व्यापार सम्बन्धी सूक्ष्म चोरियां अनेक प्रकार से वर्णन की गई है । यथा--कोई अपनी हट्ट पर किसी व्यापारी का गुड़ वेच रहा है, परन्तु कुछ गुड़ की डलियाँ अपने मुख में भी डालता जा रहा है, इस प्रकार की क्रियाएं करने से उसे चोरी का तो दोष लगता है परन्तु लोग उसे चार नहीं कहते । सो इस प्रकार की क्रियाएं अगर अज्ञानतावश कर भी ली जाएं तो विशेष पाप नहीं । किन्तु जिनके करने से चोर संज्ञा पड़े वे क्रियाएं सर्वथा न करनी चाहिएं । एवं द्रव्य और भाव रूप चोरी का सर्वथा त्याग करना चाहिए । सो द्रव्य चोरी का तो इस स्थान पर वर्णन किया गया है, किन्तु भाव चोरी का स्वरूप नहीं