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के लिए बाहिर गए तब आप को एक महाभयंकर काला नाग जो अनुमान से दो गज़ लम्बा और बहुत ही स्थूल था मिला, जिस की गति बड़ी शीघ्र थी; उस को देखकर पक्षीगण चिल्लाते थे । वह आप के पास आकर इतना ही नहीं किंतु श्राप को भली प्रकार देख कर आगे चला गया । इस प्रकार कई बार आप को हिंसक जीव मिले किन्तु आपकी हिंसा के माहात्म्य से उन्हों ने भी अपनी भद्रता का ही परिचय दिया । व्याघ्र तो आपको कई बार मिले थे ।
यह सब अहिंसा और सत्य का ही माहात्म्य है, जो हिंसक जीव भी श्रहिंसकों की तरह बर्ताव करने लग जाते हैं । फिर आप ने १९६६ का चतुर्मास लुध्याना में किया । इस चतुर्मास में धर्मप्रचार बहुत ही हुआ । चतुर्मास के पश्चात् विहार कर ग्रामानुग्राम धर्मोपदेश देते हुए १९७० का चतुर्मास श्रापने फरीदकोट में किया । इस चतुर्मास में जैन और जैनेतर लोगों को विशेष धर्म लाभ हुआ । १६७१ का चतुर्मास आपने कसूर शहर में किया । १९७२ का चतुर्मास आपने नाभा में किया । इस चतुर्मास मे आप को श्वास रोग ने अत्यन्त खेदित किया, किंतु श्राप की शान्ति और सहनशक्ति इतनी प्रबल थी कि -किसी प्रकार से भी आप धैर्य नहीं छोड़ते थे । उन दिनो में मुनि श्री ज्ञानचन्द्र जी महाराज चतुर्मास के पश्चात् नाभा से विहार कर वरनाला मंडी पहुंचे थे किंतु उनको अजीर्ण होगया था। वहां पर योग्य प्रतिकार होने पर भी रोग शान्त नहीं हुआ । तब आप ने नाभा से विहार किया, वरनाला मंडी मे उस मुनि को दर्शन दिये । जब मुनि ज्ञानचन्द्र जी का स्वर्गवास होगया तब आपने बहुत से भाइयों की प्रार्थना पर लुध्याना के चतुर्मास की विज्ञप्ति स्वीकार करली | तब आपने ११७३ का चतुर्मास लुध्याना में किया । चतुर्मास के पश्चात् जब आप विहार के लिये तैय्यार हुए तब आप श्री जी को लुध्याना निवासी श्रावकमंडल विज्ञप्ति की कि--हे भगवन् ! थाप का शरीर बहुत ही निर्बल होगया है । श्वासरोग के कारण आप अपनी जंवा बल से चल भी नहीं सकते, ग्राम २ में डोली बना कर विचरना यह भी ठीक नहीं है । अतएव इसी स्थान पर स्थिरवास करने की कृपा करें। जिस प्रकार श्री श्री श्री १००८ श्राचार्यवर्य श्री ३ पूज्य मोतीराम जी महाराज की इस शहर पर अपार कृपा थी उसी प्रकार आप श्री जी की भी अपार कृपा है । श्रतएव यहां पर ही विराजिये, तव श्रीमहाराज जी ने उक्त श्रावकवर्ग की विज्ञप्ति को स्वीकार कर लिया, और लुधयाना में ही विराजमान होगए | आपके विराजमान होने से कई प्रकार के धर्मकार्य होने लगे जैसेकि - पुस्तक प्रकाशन, वा युवक मंडल की स्थापना इत्यादि । फिर आपके दर्शनों के लिये अनेक साधु साध्वियें श्रावक और श्राविकाएँ आने लगे । १६७६ के वर्ष में जब आप आंखों में मोतिया उतरने लगा, तब श्रीमान् डाक्टर
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